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________________ संबंधसद्भाववाद: १५१ कल्पना प्रतीतिविरोधात् ? अर्थक्रियाविरोधश्च, अनामन्योन्यमसम्बन्धतो जलधारणाहरणाद्यर्थक्रियाकारित्वानुपपत्तेः। रज्जुवंशदण्डादीनामेकदेशाकर्षणे तदन्याकर्षणं चासम्बन्धवादिनो न स्यात् । अस्ति चैतत्सर्वम् । अतस्तदन्यथानुपपत्तश्चासौ सिद्धः । यच्च-'पारतन्त्र्यं हि' इत्याद्य क्तम् ; तदप्ययुक्तम् ; एकत्वपरिणतिलक्षणपारतन्त्र्यस्यार्थानां प्रतीतित: सुप्रसिद्धत्वात्, अन्यथोक्तदोषानुषंगः । न चार्थानां सम्बन्धः सर्वात्मनैकदेशेन वाभ्युपगम्यते येनोक्तदोषः स्यात् प्रकारान्तरेणेवास्याभ्युपगमात् । सर्वात्मकदेशाभ्यां हि तस्यासम्भवात् प्रकारान्तर विशेषार्थ-बौद्ध घट, पट, गृह, बांस आदि सम्पूर्ण पदार्थों के परमाण प्रों को परस्पर सम्बन्ध रहित मानते हैं, कोई पदार्थ स्थूल नहीं है जो भी दृश्यमान वस्तु स्थूल दिखाई देती है वह मात्र कल्पना से दिखाई देती है, प्रत्येक वस्तु के एक-एक परमाणु बिखरे अर्थात् पृथक्-पृथक् ही हैं, सो इस असम्बंध मान्यता पर आचार्य समझा रहे हैं कि यदि घट, पट, रस्सी, दण्ड आदि पदार्थ के अंश या परमाण भिन्नभिन्न होते तो घट में जल भरना, वस्त्र को पहनना, रस्सी को खींचना, रस्सी से बालटी को बांधकर कुप्रा से पानी निकालना इत्यादि लोक प्रसिद्ध कार्य किस प्रकार सम्पन्न होते ? अर्थात् नहीं हो सकते, अतः सिद्ध होता है कि घटादि पदार्थों के परमाणु परस्पर सम्बंध हैं। बौद्ध ने कहा था कि “पारतन्त्र्यं हि संबंधः” दो वस्तुओं का पारतन्त्र्य भाव सम्बन्ध कहलाता है इत्यादि, सो वह कथन अयुक्त है, पदार्थों की जो एकत्वरूप परिणतियां हुआ करती हैं वह पारतन्त्य तो प्रत्यक्ष से प्रतीत हो रहा है, अन्यथा वही पूर्वोक्त अर्थ क्रिया का अभाव होना आदि दोष आते हैं। हम जैन घटादि परमाण ओं का परस्पर में जो सम्बन्ध मानते हैं वह न एकदेश से मानते हैं, और न सर्वदेश से मानते हैं, जिससे कि बौद्ध के दिए हुए दूषण आ जाय, हमारे यहां तो एक भिन्न ही प्रकार का सम्बन्ध माना जाता है, एकदेश या सर्वदेश सम्बन्ध तो सिद्ध नहीं हो पाता, अतः अन्य ही प्रकार का सम्बन्ध उन परमाण प्रों में होना चाहिए, इसतरह प्रतीति की अन्यथानुपपत्ति से एकदेश तथा सर्वदेश सम्बन्ध से पृथक् जाति का सम्बन्ध स्वीकार किया गया है जो स्निग्ध तथा रूक्ष गुणों के कारण हुआ करता है, अर्थात् परमाण अओं में जो बंध या संबंध होकर स्थूलता आती है वह स्निग्ध या रूक्ष गुणों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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