________________
संबंधसद्भाववादः
१४६ किञ्च, कार्यकारणभावः सकलदेशकालावस्थिताखिलाग्निधूमव्यक्तिकोडीकरणेनावगतोऽनुमाननिमित्तम्, नान्यथा। न च निर्विकल्पकसविकल्पकप्रत्यक्षस्येयति वस्तुनि व्यापारः, प्रत्यक्षानुपलम्भयो।
किञ्च, कार्योत्पादनशक्तिविशिष्टत्वं कारणत्वम् । न चासौ शक्तिः प्रत्यक्षावसेया किन्तु कार्यदर्शनगम्या,
"शक्तय : सर्वभावानां कार्यार्थापत्तिगोचरा:"
[ मी० श्लो० शून्यवाद श्लो० २५४ ] इत्यभिधानात् ।
यहां पर कार्यकारण ग्रादि सम्बन्धका खण्डन करते हुए बौद्ध लोग जैन आदि पर आक्षेप लगा रहे हैं कि आप यदि धूम और अग्निमें कार्य कारण का सर्वथा अविनाभाव सिद्ध करते हैं, उसमें किसी प्रकार का व्यभिचार नहीं मानते हैं तो वक्तृत्व और असर्वज्ञत्व में अविनाभाव मानना पड़ेगा इत्यादि । अस्तु । आगे जैन इस बौद्ध के मन्तव्य का निरसन करनेवाले हैं।
अग्नि और धम इत्यादि पदार्थों में सम्बन्ध वादी कार्य कारण सम्बन्ध मानते हैं, किन्तु जब सम्पूर्ण देश और सम्पूर्ण कालों में होनेवाले जितने भी धूम और अग्नि हैं उन सबको एक एक को जानेंगे तब वह कार्य कारणभाव संबंध अनुमान का हेतु बन सकता है, अन्यथा नहीं बन सकता। तीनों लोकों में अवस्थित सम्पूर्ण धूम और अग्निओंको जानने का कार्य न सविकल्प प्रत्यक्ष कर सकता है और न निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही कर सकता है, तथा प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ ये दोनों भी इतने बड़े विषय में प्रवृत्त नहीं हो सकते हैं । इसलिए हम बौद्ध कार्य कारणादि संबंध को नहीं मानते हैं। दसरी बात यह है कि कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति से विशिष्ट होना कारणपना कहलाता है, किन्तु कार्योत्पादन शक्ति प्रत्यक्ष से जानी नहीं जाती, केवल कार्य को देखकर उसका अनुमान होता है, कहा भी है--' शक्तयः सर्वभावानां कार्यार्थापत्ति गोचराः" सभी पदार्थों की शक्तियां कार्योंकी अन्यथानुपत्ति से जानी जाती हैं। अब देखिये-जब धमादि कार्य से अग्नि आदि कारणत्वका ज्ञान होगा तभी तो अनुमान से शक्ति का ज्ञान होगा । पुनः "इस शक्ति का यह कार्य है" इसप्रकार का उस अनुमान में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org