SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्बन्धसद्भाववादः १२७ "पारतन्त्रयहि सम्बन्धः सिद्धे का परतन्त्रता । तस्मात्सर्वस्य भावस्य सम्बन्धो नास्ति तत्त्वत: ॥१॥" [सम्बन्धपरी० ] नापि रूपश्लेषलक्षणोसौ; सम्बन्धिनोद्वित्वे रूपश्लेषविरोधात् । तयोरक्ये वा सुतरां सम्बन्धाभावः, सम्बन्धिनोरभावे सम्बन्धायोगात् द्विष्ठत्वात्तस्य । अथ नैरन्तयं तयो रूपश्लेषः; न; अस्यान्तरालाभावरूपत्वेनाऽतात्त्विकत्वात् सम्बन्धरूपत्वायोगः । निरन्तरतायाश्च सम्बन्धरूपत्वे सान्तरतापि कथं सम्बन्धो न स्यात् ? किञ्च, असौ रूपश्लेषः सर्वात्मना, एकदेशेन वा स्यात् ? सर्वात्मना रूपश्लेषे अणूनां पिण्डः अणुमात्र: स्यात् । एकदेशेन तच्छ्लेषे किमेकदेशास्तस्यात्मभूताः, परभूताः वा ? प्रात्मभूता है । निष्पन्न हुए दो पदार्थों का संबंध होता है ऐसा कहो तो इनमें पारतन्त्र्य का ही अभाव है अतः असंबंध ही रहेगा । कहा भी है-पारतन्त्र्य होने को संबंध कहते हैं, सो जब पदार्थ सिद्ध हैं तो उनमें क्या परतंत्रता आयेगी ? इसलिये सभी पदार्थों का परस्पर में वास्तविक संबंध नहीं है ।।१।। ___ रूप श्लेष-[अन्योन्य स्वभावों का अनुप्रवेश ] लक्षण वाला संबंध भी सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि इन रूप आदि संबंधियों में दोपना है तो रूप श्लेष कैसे होवे विरोध पाता है । संबंधियों में एकत्व मानें तो बिल्कुल ही संबंध का अभाव होवेगा, जहां पर दो संबंधी ही नहीं हैं वहां पर संबंध का प्रयोग रहेगा संबंध तो दो वस्तुओं में हुआ करता है । शंका-संबंधियों में जो निरंतरपना है वही उनका रूप श्लेष कहलाता है । समाधान-ऐसा नहीं कहना, निरंतर का अर्थ होता है अंतराल का अभाव, और प्रभाव होता है अतात्विक, अतः वह संबंध रूप नहीं हो सकता। यदि निरंतरता के संबंधपना संभव है तो सान्तरता के कैसे नहीं हो सकता ? क्योंकि इसमें भी निरंतरता के समान दो पदार्थों की अपेक्षा रहती है । तथा यह रूप श्लेष लक्षण संबंध सर्वदेश से होता है या एकदेश से होता है ? सर्वदेश से संबंधियों का संबंध होना रूप श्लेष कहलाता है ऐसा मानने पर अणुओं का पिण्ड भी अणु मात्र रह जायगा । एकदेश से रूप श्लेष संबंध होता है अर्थात् वस्तु के एकदेश में रूप श्लेष होता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy