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क्षणभंगवादः
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कथं च निरन्वयनाशित्वे कारणस्योपादानसहकारित्वस्य व्यवस्था तत्स्वरूपापरिज्ञानात् ? उपादानकारणस्य हि स्वरूपं कि स्वसन्ततिनिवृत्तौ कार्यजनकत्वम्, यथा मृत्पिण्ड: स्वयं निवर्तमानो घटमुत्पादयति, आहोस्विदनेकस्मादुत्पद्यमाने कार्ये स्वगतविशेषाधायकत्वम्, समनन्तरप्रत्ययत्वमात्र वा स्यात्, नियमवदन्वयव्यतिरेकानुविधानं वा ? प्रथमपक्षे कथञ्चित्सन्ताननिवृत्तिः, सर्वथा वा? कथञ्चिच्चेत्, परमतप्रसङ्गः। सर्वथा चेत् ; परलोकाभावानुषङ्गो ज्ञानसन्तानस्य सर्वथा निवृत्तेः ।
यह भी एक जटिल प्रश्न है कि बौद्ध मत में वस्तु निरन्वय-समूल चूल क्षणमात्र में नष्ट हो जाती है तो उसमें कारण के उपादान और सहकारीपने की व्यवस्था कैसे हो सकेगी, क्योंकि क्षणिक वस्तु का परिज्ञान या उसके उपादान तथा सहकारीपने का परिज्ञान तो हो नहीं सकता । बौद्ध ही बतावे कि उपादान का लक्षण क्या है, स्व संतति की निवृत्ति होने पर कार्य को उत्पन्न करना उपादान कारण कहलाता है, जैसे कि मिट्टी का पिंड स्वयं निवृत्त होता हुआ घट को उत्पन्न करता है, अथवा अनेक कारण से उत्पन्न हो रहे कार्य में अपने में होने वाला विशेष डालना, या समनंतर प्रत्यय मात्र होना, याकि नियम से कार्य के साथ अन्वय व्यतिरेकानुविधान होना ? प्रथम पक्ष-स्वसंतति के निवृत्त होने पर कार्य को उत्पन्न करना उपादान कारण है ऐसा कहो तो पुनः प्रश्न होता है कि कथंचित् [ पर्याय रूप से ] संतान निवृत्ति होती है अथवा सर्वथा [ द्रव्यरूप से भी ] संतान निवृत्ति होती है ? कथंचित् कहने से तो बौद्ध का परमत में-जैनमत में प्रवेश हो जाता है, और सर्वथा कहते हैं तो परलोक का अभाव होता है, क्योंकि ज्ञान रूप संतान का सर्वथा नाश होना स्वीकार किया है।
भावार्थ-उपादान कारण का लक्षण बौद्ध से जैन पूछ रहे हैं चार तरह से उसका लक्षण हो सकता है ऐसा बौद्ध से कहा है, स्व संतान के निवृत्त होने पर कार्य को पैदा करना, उपादान कारण है, अथवा अनेक कारण से उत्पन्न हो रहे कार्य में विशेषता लाना, या समनंतर प्रत्यय मात्र होना याकि नियम से कार्य के साथ अन्वय व्यतिरेकपना होना ? प्रथम विकल्प-जो अपने संतान के निवृत्ति में कार्य को पैदा करे वह उपादान कारण कहलाता है, ऐसा कहना बनता नहीं, क्योंकि अपने संतान का यदि कथंचित् नाश होकर कार्योत्पादकपना मानते हैं बौद्ध का जैनमत में प्रवेश होता है, और संतान का सर्वथा नाश होने पर उपादान कारण कार्य को उत्पन्न
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