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________________ ६० प्रमेयकमलमार्तण्डे तत्प्रच्युतिः; तदा किमेकक्षणस्थायिभावहेतोस्तत्प्रच्युतिः, कालान्तरस्थायिभावहेतोर्वा ? प्रथमपक्षोऽयुक्तः, एव (क) क्षणस्थायिभावहेतुत्वस्याऽद्याप्यसिद्ध : तत्कृतत्वं तत्प्रच्युतेर सिद्धमेव । द्वितीयपक्षे तु क्षणिकताऽभावानुषङ्गः । किञ्च, भावहेतोरेव तत्प्रच्युतिहेतुत्वे किमसौ भावजननात्प्राक्तत्प्रच्युति जनयति, उत्तरकालम्, समकालं वा ? प्रथमपक्षे प्रागभावः प्रच्युति। स्यान्न प्रध्वंसाभावः । द्वितीयपक्षे तु भावो बौद्ध-प्रथम क्षण में ही विनाश हो जाना चाहिये ऐसा आपने कहा किन्तु पदार्थों का नाश प्रथम क्षण में ही होवेगा तो उनका सत्त्व हो असंभव है फिर सत्त्व की प्रच्युति रूप नाश कैसे होवे ? क्योंकि पदार्थ तो उत्पत्न ही नहीं हो पाये, अतः पदार्थ अपने हेतु से उत्पन्न होते हुवे नाश स्वभाव वाले ही उत्पन्न हुआ करते हैं, ऐसा हम मानते हैं। जैन-यह कथन अविचारित रमणीय है, आपने कहा कि पदार्थ अपने हेतु से उत्पन्न होते हुए नाश स्वभाव वाले ही उत्पन्न होते हैं सो पदार्थ की उत्पत्ति का जो हेतु है वही प्रच्युति-नाश का हेतु है ऐसा आपने स्वीकार किया है, इस पर हम जैन का प्रश्न है कि पदार्थ के उत्पत्ति का जो हेतु है वह एक क्षण स्थायी है या कालांतर स्थायी है जिससे कि प्रच्युति-नाश भी होना है ? प्रथम पक्ष अयुक्त है, क्योंकि एक क्षण स्थायी पदार्थ हेतु रूप होना अभी तक सिद्ध नहीं है, अतः पदार्थ की उत्पत्ति का जो हेतु है वही प्रच्युति का हेतु है यह प्रसिद्ध हो है । द्वितीय पक्ष-कालांतर स्थायी भाव हेतु पदार्थ की उत्पत्ति का कारण है ऐसा कहने पर पदार्थों की क्षणिकता सिद्ध नहीं होती है। दूसरी बात यह है कि भाव स्वभाव वाले जो हेतु हैं जैसे मिट्टी, चक्र आदि घट के उत्पत्ति के भाव स्वभाव हेतु हैं, इन्हीं से घटादि के नाश होता है ऐसा जो बौद्ध कहते हैं उसमें प्रश्न होता है कि वह भाव रूप हेतु पदार्थ को उत्पन्न करने के पहले उसके नाश को पैदा करते हैं अथवा उत्तरकाल में याकि समकाल में करते हैं ? प्रथम पक्षघटादि को उत्पन्न करने के पहले उसके नाश को पैदा करते हैं ऐसा कहो तो घटादि का जो प्रागभाव है वही नाश कहलायेगा, प्रध्वंसाभाव नहीं। द्वितीय पक्ष-घटोत्पत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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