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________________ ८२ प्रमेयकमलमार्तण्डे भिधानम् ; स्वरूपत एवातीतादिसमयस्यातीतादित्वप्रसिद्धः। अनुभूतवत मानत्वो हि समयोतीतः, अनुभविष्यद्वर्त्तमानत्वश्चानागतः, तत्सम्बन्धित्वाच्चानामतीतानागतत्वम् । न च कालवदर्थानामपि स्वरूपेगवातीतानागतत्वं युक्तम् ; न ह्य कस्य धर्मोन्यत्राप्यासञ्जयितुयुक्तः, अन्यथा निम्बादेस्तिक्ततादिधर्मो गुडादेरपि स्यात्, ज्ञानधर्मो वा स्वपरप्रकाशकत्व घटादेरपि स्यात्, तद्धर्मो वा जडता ज्ञानस्यापि स्यात् । ननु चानुवृत्ताकारप्रत्ययोपलम्भादक्षणिकत्वधर्मोर्थानां साध्यते, स च बाध्यमानत्वादसत्यः; तदप्य सम्यक ; यतोऽस्य बाधको विशेषप्रतिभास एव, स चानुपपन्नः। तथाहि-अनुवृत्ताकारे प्रति पन्ने, अप्रतिपन्ने वासौ तद्बाधको भवेत् ? यदि प्रतिपन्ने ; तदा किमनुवृतप्रतिभासात्मको विशेषप्रतिभासः, तद्वयतिरिक्तो वा? प्रथमपक्षेऽनुवृत्तप्रतिभासस्य मिथ्यात्वे विशेषप्रतिभासस्यापि तदात्मकत्वात्तत्प्रसक्त: आदि में कडुअापन होता है अतः गुड़, शक्कर आदि में भी कडुअआपन होता है ऐसा भी कह सकेंगे । क्योंकि एक का धर्म अन्य में जोड़ना आपने स्वीकार किया है । इसीप्रकार ज्ञान का स्वभाव स्व और परको जानना है अतः घट, पट आदि में भी स्वपर को जानना रूप स्वभाव होवे या घट पट आदि का जड़ स्वभाव ज्ञान में होवे ऐसा भी कह सकते हैं । बौद्ध-जैन आदि वादीगण पदार्थों का नित्यधर्म अनुवृत्त आकार वाले ज्ञान के द्वारा उपलब्ध होने से सिद्ध करते हैं, अर्थात् अनुवृत्ताकार ज्ञान होता है अतः पदार्थों में नित्यता है ऐसा इनका कहना है किन्तु अनुवृत्ताकार ज्ञान तो बाधित होता है अतः असत्य है ? ___ जैन- यह बात असत् है, आपने कहा कि अनुवृत्ताकार प्रत्यय बाधित होता है सो इस ज्ञान को बाधा देनेवाला कौन है विशेष प्रतिभास ही तो होगा ? किन्तु वह स्वयं अनुपपन्न है, कैसे सो बताते हैं - अनुवृत्त प्रत्यय बाधित होता है ऐसा आपका कहना है सो वह कब बाधित होगा अनुवृत्ताकार को जान लेने पर अथवा बिना जाने ? अर्थात् अनुवृत्त प्रत्यय विशेष प्रतिभास द्वारा बाध्यमान ठहरा सो विशेष प्रतिभास ने उसको जाना कि नहीं ? यदि जाना है तो उसमें पुनः दो प्रश्न होते हैं कि अनुवृत्त प्रतिभासात्मक विशेष प्रतिभास बाधक बनता है अथवा अनुवृत्त प्रतिभास से रहित जो विशेष प्रतिभास है वह बाधक बनता है ? प्रथम पक्ष कहो तो जब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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