SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४ प्रमेयकमलमार्तण्डे ननु पूर्वोत्तरविवर्त्तव्यतिरेकेणापरस्य तद्वयापिनो द्रव्यस्याप्रतीतितोऽसत्त्वात्कथं तल्लक्षणमूर्ध्वतासामान्यं सत् ; इत्यप्यसमीचीनम् ; प्रत्यक्षत एवार्थानामन्वयिरूपप्रतीतेः प्रतिक्षणविशरारुतया स्वप्नेपि तत्र तेषां प्रतीत्यभावात् । यथैव पूर्वोत्तरविवर्त्तयोावृत्तप्रत्ययादन्योन्यमभावः प्रतीतस्तथा मृदाद्यनुवृत्तप्रत्ययात्स्थितिरपि । ननु कालत्रयानुयायित्वमेकस्य स्थितिः, तस्याश्चाऽक्रमेण प्रतीतौ युगपन्मरणावधि ग्रहणम्, क्रमेण प्रतीतो न क्षणिका बुद्धिस्तथा तां प्रत्येतु समर्था क्षणिकत्वात् ; इत्यप्ययुक्तम् ; बुद्ध : क्षणिक नाम से कहा जाता है, इस द्रव्य सामान्य को ही आगे की पर्याय का उपादान कारण कहते हैं, अर्थात् द्रव्य सामान्य को जैन उपादानकारण नाम से कहते हैं और इसी को नैयायिकादि परवादी समवायीकारण कहते हैं। बौद्ध-पूर्वोत्तर पर्यायों में व्याप्त रहने वाला द्रव्य ऊर्ध्वता सामान्य है ऐसा जैन ने कहा, किन्तु पूर्व पर्याय और उत्तर पर्याय इन पर्यायों को छोड़कर अन्य कोई द्रव्य नामा पदार्थ उन पर्यायों में व्याप्त रहने वाला प्रतीत नहीं होता है अत: उसका सत्व नहीं है, फिर वह ऊर्ध्वता सामान्य का लक्षण किस प्रकार सत्य कहलायेगा ? जैन -यह कथन असमीचीन है, जगत के यावत् मात्र पदार्थों में अन्वय रूप की प्रतीति प्रत्यक्ष प्रमाण से ही हो रही है, उन पदार्थों में प्रतिक्षण नष्ट होना तो स्वप्न में भी प्रतीत नहीं होता है । जिसप्रकार पूर्व पर्याय और उत्तर पर्याय इनमें व्यावृत्त प्रतिभास होने से पूर्व पर्याय से उत्तर पर्याय भिन्न रूप प्रतीत होती है- उन दोनों का परस्पर में अभाव मालूम पड़ता है, उसी प्रकार उन्हीं पयार्यों में मिट्टो अादि द्रव्य का अन्वयीपना प्रतीत होता ही है वह मिट्टी रूप स्थिति अनुवृत्त प्रत्यय का निमित्त ... बौद्ध-'द्रव्य रूप जो एक पदार्थ आपने माना है उसका तीनों कालों में अन्वयरूप से [ यह मिट्टी है, यह मिट्टी है इत्यादि रूप से ] रहना स्थिति कहलाती है, अब इस स्थिति का प्रतिभास यदि अक्रम से होता है तो एक साथ मरण काल तक [ अथवा विवक्षित घटादि का शुरु से आखिर तक ] उसका ग्रहण होना चाहिये और यदि क्रम से प्रतिभासित होती है तो क्षण मात्र रहने वाला ज्ञान उस काल त्रयवर्ती स्थिति को जानने के लिये समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि वह क्षणिक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy