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________________ ब्राह्मणत्वजातिनिरासः सम्बन्ध रखने वाली व्यक्ति-व्यक्ति में भिन्नरूप ब्राह्मणत्व जाति का। ऐसे ही सामान्यवाद में गोत्व आदि जाति का खंडन किया है, मनुष्यत्व का भी खण्डन हो सकता है। इसका मतलब यह नहीं हुआ कि गायों में गोत्व और मनुष्य में मनुष्यत्व है ही नहीं, सिर्फ वह एक नित्य व्यापक नहीं है और समवाय सम्बन्ध ऊपर से मनुष्यादि में नहीं आता है । मनुष्य, गायें, सैलादि में स्वतः ही वह मनुष्यत्व, गोत्व आदि रहता है. उसी प्रकार मनुष्य विशेष में ब्राह्मणत्व है, वह ऊपर से एक अखंड व्यापक ब्राह्मणत्व जाति से नहीं पाता है। बहुत से विद्वान् यह समझते हैं कि प्रभाचन्द्राचार्य वर्ण व्यवस्था को ही नहीं मानते, किन्तु वह भ्रम है, यह न्याय ग्रन्थ है यहां परवादी के एकांत मत का निरसन करना मुख्य अभिप्राय रहता है । महापुराण में भगवत् जिनसेनाचार्य ने "जातयोऽनादयः प्रोक्ताः शुक्लध्यानस्य हेतवः” ऐसा कहा है। वह ध्यान देने योग्य है। प्रभाचन्द्राचार्य ने ब्राह्मणत्व जाति का खण्डन किया इसका मतलब यह नहीं कि कोई माता पिता के रजोवीर्य की शुद्धि के बिना ही केवल क्रिया विशेष पालने से ही ब्राह्मण है । ब्राह्मणत्व जाति के खण्डन का कारण नैयायिक की नित्य व्यापो जाति का निरसन करना है। इस ब्राह्मणत्व जाति खंडन का इतना ही अभिप्राय समझना चाहिये कि यहां प्रकरण प्राप्त नैयायिक मीमांसकादि के द्वारा मानी गयी व्यापक, नित्य, एक ब्राह्मणत्व जाति का ही निरसन किया गया है । न कि अनित्य, अनेक, अव्यापक ब्राह्मणत्व जाति का, जातियां माता पिता के रजोवीर्य से सम्बन्ध रखती हैं, माता पितादि के रक्तादि का तथा स्वभाव एवं शारीरिक बनावट आदि का संतान में असर पाते हुए साक्षात् हो दिखाई देता है। बहुत से पैत्रिक रोग भी देखने में आते हैं अर्थात् माता पिता जिस संग्रहणी श्वास आदि रोग से ग्रस्त रहते हैं प्रायः संतान में भी वे रोग देखने में आते हैं । अतः जिनका आचरण क्रिया भ्रष्ट एवं कुशीली है परम्परा से जिनके यहां विधवा विवाह आदि होनाचरण होते हैं उनकी सन्तान उच्च नहीं कहला सकती। वर्तमान की पर्याय में वह सन्तान होन कुल को हो कहलायेगी, क्योंकि ऐसे ही होनपिंड से उनके शरीर का निर्माण हुआ है । खानदान एक रहस्यमय वस्तु है वह दृष्टिगोचर नहीं है, वर्तमान में तो इस रजोवीर्य की विशेषता के लिये एक सुन्दर उदाहरण हो गया है, जैसे संकर धान्य तत्कालीन पैदायश की दृष्टि से तो सुहावना लगता है किन्तु आगे उन बीजों की परम्परा नहीं चलती, थोड़े बार ही उगाने के बाद उन संकर बीजों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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