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________________ ६८ प्रमेयकमलमार्तण्डे किंच, संस्कारात्प्राग्बाह्मणबालस्य तदस्ति वा, न वा ? यद्यस्ति; संस्कारकरणं वृथा। अथ नास्ति; तथापि तदृथा। अब्राह्मणस्याप्यतो ब्राह्मण्यसम्भवे शूद्रबालकस्यापि तत्सम्भवः केन वार्येत ? ___नापि वेदाध्ययनस्य; शूद्रेपि तत्सम्भवात् । शूद्रोपि हि कश्चिद्देशान्तरं गत्वा वेदं पठति पाठयति वा । न तावतास्य ब्राह्मणत्वं भवद्भिरभ्युपगम्यत इति । ततः सदृशक्रियापरिणामादिनिबन्धनैवेयं ब्राह्मणक्षत्रियादिव्यवस्था इति सिद्ध सर्वत्र सदृशपरिणामलक्षणं समानप्रत्ययहेतुस्तिर्यक्सामान्यमिति । ॥ इति ब्राह्मणत्वजातिनिरासः समाप्तः ।। मीमांसक को हम जैन पूछते हैं कि यज्ञोपवीतादि संस्कार होने के पहले ब्राह्मण बालक में ब्राह्मणत्व रहता है कि नहीं ? यदि रहता है तो संस्कार करना व्यर्थ है, और पहले ब्राह्मण्य नहीं है ऐसा कहो तो भी संस्कार करना व्यर्थ है, क्योंकि यदि पहले ब्राह्मण्य नहीं था और संस्कार से बाह्मण्य आया तब तो शूद्र बालक में संस्कार से ब्राह्मणत्व होना शक्य होगा । उसको कौन रोक सकता है ? वेदों का अध्ययन बाह्मण का कारण है ऐसा पक्ष स्वीकार करे तो भी ठीक नहीं है, वेदाध्ययन शूद्र में भी संभव है। कोई शूद्र पुरुष है वह अन्य देश में जाकर वेद के पठन पाठन का कार्य करता हुआ देखा जाता ही है, किन्तु उतने मात्र से प्राप उसमें ब्राह्मणत्व तो नहीं मान सकते हैं । इस प्रकार नित्य ब्राह्मण्य जाति से ब्राह्मणपना होता है ऐसा कहना सिद्ध नहीं होता, इसलिये ऐसा मानना चाहिये कि सदृश परिणाम ( यह बाह्मण है, यह बाह्मण है इत्यादि ) सदृश क्रिया इत्यादि सदृश सामान्य के निमित्त से बाह्मण, क्षत्रिय आदिक वर्ण व्यवस्था होती है। इस तरह सर्वत्र ही सदृश परिणाम लक्षण वाला तिर्यक्सामान्य ही समान प्रत्यय या अनुवृत्तप्रत्यय का कारण है यह सिद्ध होता है । ॥ बाह्मणत्वजातिनिरास समाप्त ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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