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________________ ब्राह्मणत्वजातिनिरास: किञ्च, ब्राह्मण एव तन्मुखाज्जायते तन्मुखादेवासौ जायेत ? विकल्पद्वयेप्यन्योन्याश्रयःसिद्धे हि ब्राह्मणत्वे तस्यैव तन्मुखादेव जन्मसिद्धि:, तत्सिद्धेश्च ब्राह्मणत्वसिद्धिरिति । अथ जात्या ब्राह्मण्यस्य सिद्धिस्तन्मुखादेव तज्जन्मनश्चायमदोषः ; न ; अस्याः प्रत्यक्षतोऽप्रतीतेः । न खलु खण्डमुण्डादिषु सादृश्यलक्षणगोत्ववद्द वदत्तादौ ब्राह्मण्यजातिः प्रत्यक्षतः प्रतीयते, अन्यथा 'किमयं ब्राह्मणोऽन्यो वा' इति संशयो न स्यात् । तथा च तन्निरासाय गोत्राद्युपदेशो व्यर्थः । न हि "गौरयं मनुष्यो वा' इति निश्चयो गोत्राद्युपदेशमपेक्षते । ५६ किंच, स्वयं ब्रह्माजी के ब्राह्मणपना है या नहीं ? यदि नहीं है तो उससे ब्राह्मण जाति की उत्पत्ति कैसे होवेगी ? अमनुष्यों से मनुष्यों की उत्पत्ति होना तो घटित होता नहीं । ब्रह्मा में ब्राह्मण्य का अस्तित्व है तो वह भी ब्रह्मा के सर्वांग में है अथवा केवल मुख प्रदेश में है ? सर्वत्र है कहो तो वही पूर्वोक्त दोष आता है कि प्रजायों में भेद सिद्ध नहीं होता है कि यह मनुष्य ब्राह्मण है और यह शूद्र है इत्यादि । इस दोष को हटाने के लिये दूसरा पक्ष स्वीकार करे कि ब्रह्मा के मुख भाग में ही ब्राह्मणपना है तब तो मुख को छोड़कर ब्रह्मा के अन्य अवयव शूद्र रूप हो जायेंगे । फिर ब्रह्माजी के चरण आदि नमस्कार करने योग्य नहीं रहेंगे, जैसे वृषल - व्यभिचारी के चरण नमस्कार करने योग्य नहीं होते हैं । अतः ब्राह्मणों की उत्पत्ति स्थान स्वरूप ब्रह्मा का मुख ही वंदनीय माना जायगा अन्य अवयव नहीं । तथा आप ब्राह्मण वर्ण ही ब्रह्म मुख से उत्पन्न होना मानते हैं अथवा ब्रह्मा के मुख से ही ब्राह्मण उत्पन्न होते हैं ऐसा मानते हैं, एवकार किधर लगाना इष्ट है ? दोनों पक्षों में अन्योन्याश्रय दोष आता है, ब्राह्मणत्व के सिद्ध होने पर तो ब्रह्मा के मुख से ही ब्राह्मण की उत्पत्ति होती है अथवा ब्राह्मण ही ब्रह्म मुख से उत्पन्न होते हैं, ऐसा सिद्ध होगा और इसके सिद्ध होने पर उससे ब्राह्मणत्व सिद्ध हो पायेगा, इस तरह दोनों भी असिद्ध रह जाते हैं । मीमांसक - जाति से ब्राह्मणत्व की सिद्धि हुआ करती है, और ब्राह्मण्य का जन्म तो ब्रह्म मुख से हुआ ही है अतः अन्योन्याश्रय दोष नहीं होगा ? Jain Education International जैन - यह बात गलत है यह जाति ही तो प्रत्यक्ष से प्रतीति में नहीं आती है । खण्ड गो मुण्डगो आदि गो व्यक्तियों में जिस प्रकार सादृश्य परिणामरूप गोत्व प्रतीत होता है वैसे देवदत्त, यज्ञदत्त प्रादि व्यक्तियों में ब्राह्मण्य जाति प्रत्यक्ष से प्रतीत For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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