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________________ संवरनिर्जरयोः सिद्धिः ननु योगजधर्मानुगृहीतानामिन्द्रियाणां गगनाद्यशेषातीन्द्रियार्थ साक्षात्का रिज्ञानजनकत्वसम्भवात् कथं तत्राशेषज्ञानस्येन्द्रियजत्वेपि प्रतिबन्धसम्भवः इत्यप्यसमोक्षिताभिधानम् ; योगजधर्मानुग्रहस्येन्द्रियाणां प्रथमपरिच्छेदे प्रतिविहितत्वात् । ४५ भावनाप्रकर्षपर्यन्तजत्वाद्योगिविज्ञानस्य नोक्तदोषानुषङ्गः । भावना हि द्विविधा श्रुतमयी, चिन्तामयी च । तत्र श्रुतमयी श्रूयमाणेभ्यः परार्थानुमानवाक्येभ्यः समुत्पद्यमानज्ञानेन श्रुतशब्दवाच्यतामास्कन्दता निर्वृत्ता परमप्रकर्षं प्रतिपद्यमाना स्वार्थानुमानज्ञानलक्षणया चिन्तया निर्वृत्तां चिन्तामयी भावनामारभते । सा च प्रकृष्यमारणा परं प्रकर्षपर्यन्तं सम्प्राप्ता योगिप्रत्यक्षं जनयतीति तत्कथमस्यावरणापाय प्रभवत्वम् ? इत्यप्यसारम् ; क्षणिक नरात्म्यादिभ । वनायाश्चिन्तामय्याः भावार्थ::- ध्यान, प्राणायाम आदि योग विशेष से इन्द्रियों में अतिशय पैदा होता है और वह अतीन्द्रिय पदार्थों को भी जानने लग जाती है ऐसा मीमांसकों का कहना है सो इस विषय पर पहले अध्याय में विचार कर आये हैं । इन्द्रियों में योगज धर्म का कितना भी अनुग्रह हो जाय किंतु वे परमाणु आदि पदार्थों को ग्रहण नहीं कर सकती न अपने विषय को छोड़कर अन्य रूप आदि को ग्रहण कर सकती है, क्या योगज धर्मानुग्रहीत नेत्र रसास्वाद का कार्य करेंगे ? नहीं कर सकते हैं । अतः योगज धर्मानुग्रहीत इंद्रियों द्वारा संपूर्ण पदार्थों को जानकर सर्वज्ञ होना शक्य नहीं है । Jain Education International बौद्ध: - योगज धर्मानुग्रहीत इन्द्रिय से भले ही अखिल वस्तु का ज्ञान नहीं हो किन्तु श्रुतमयी भावना आदि का जब परम प्रकर्ष होता है तब उससे होने वाला योगी का ज्ञान प्रशेष पदार्थों का ग्राहक बन जाता है, इसमें कोई आपके कहे हुए दोष नहीं आते ? भावना भी दो प्रकार की है- श्रुतमयी भावना और चिन्तामयी भावना । श्राचार्य श्रादि से सुनने में प्राये हुए जो परार्थानुमान रूप वाक्य हैं उनसे उत्पन्न हुआ ज्ञान श्रुत शब्द के द्वारा कहा जाता है, इन गुरु वाक्यों से उत्पन्न हुई तथा परम प्रकर्ष को प्राप्त हुई ऐसी जो श्रुतसम्बन्धी भावना है वह श्रुतमयी भावना कहलाती है, यही भावना स्वार्थानुमान लक्षण वाली चिन्ता से निर्मित चिन्तामयी भावना को उत्पन्न करती है । फिर चिन्तामयी भावना बढ़ते बढ़ते चरम सीमा को प्राप्त होती है तब योगी प्रत्यक्ष को उत्पन्न कर देती है । इस प्रकार योगी प्रत्यक्ष ज्ञान या पूर्ण ज्ञान स्वरूप मुख्य प्रत्यक्ष तो इन भावनाओं से उत्पन्न होता है, फिर इसको आप जैन आवरण के नाश से होता है ऐसा क्यों मानते हैं ? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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