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________________ आवरणविचारः ३५ यथा रजोनीहाराद्यन्तरिततरुनिकरादिज्ञानम्, अस्पष्टं च 'सर्वं मदनेकान्तात्मकम्' इत्यादि व्याप्तिज्ञानम् । मिथ्यादृशां सर्वत्रानेकान्तात्मके भावे विपरीतज्ञानं सावरणं मिथ्याज्ञानत्वात् धत्त रकाधु - पयोगिनो मृच्छकले काञ्चनज्ञानवदिति । अतः सिद्धमावरणं पौद्गलिक कर्मति । ननु चाविद्य वावरणं न पोद्गलिक कर्म, मूतनानेनामूर्तस्य ज्ञानादेरावरणायोगात्, अन्यथा, शरीरादेरप्याव (वा) रकत्वानुषङ्गात्; इत्यप्यसमीचीनम् ; मदिरादिना मूतनाप्यमूर्तस्य ज्ञानादेरावरणदर्शनात् । अमूर्तस्य चाव (वा) रकत्वे गगमादेर्शानान्तरस्य च तत्प्रसङ्गः । तदविरुद्धत्वात्तस्य तन्नति चेत् ; तहि शरीरादेरप्यत एव तन्मा भूत्तद्विरुद्धस्यवावरकत्वप्रप्तिद्धः । प्रवाहेण प्रवत. मानस्य ज्ञानादेरविद्योदये निरोधात्तस्यास्तद्विरोधगतौ मदिरादिवत्पौद्गलिक कर्मणोपि सास्तु भावार्थ:-परवादी ने पहले ज्ञान के प्रावरण का प्रभाव सिद्ध करना चाहा, जब उसका प्रभाव नहीं हो सका तब वह आवरण नामा पदार्थ किस रूप है यह प्रश्न हुआ, जैनाचार्य ने समझाया कि वह प्रावरण तो कर्म है जो कि आत्म स्वभाव से भिन्न है, आत्मा से पृथक ऐसे हीन शरीरादि में मोह पैदा करता है इत्यादि । __ शंकाः-आवरण को अविद्या रूप मानना चाहिये, पुद्गल रूप नहीं, क्योंकि पुद्गल मूर्तिक पदार्थ है उससे अमूर्तिक आत्माके ज्ञानादि गुणों का प्रावरण होना शक्य नहीं है यदि मूर्तिक पदार्थ अमूर्तिक ज्ञानादि पर आवरण कर सकता है तो शरीरादि भी आवरण करने वाले बन जायेंगे। समाधान:-यह शंका गलत है, मदिरा आदि मूर्तिक पदार्थ के द्वारा अमूर्तिक ज्ञान आदि का आवरण देखा जाता है, यदि आवरण को अमूर्तिक मानते हैं तो आकाश आदिक अमर्तिक द्रव्य तथा अन्य ज्ञानादिक हैं उनसे भी ज्ञान पर यावरण प्राने लगेगा ? यदि कहा जाय कि आकाश या ज्ञानादिक ज्ञान के साथ अविरुद्धता रखने वाले पदार्थ हैं, अतः इनसे ज्ञान का प्रावरण नहीं हो सकता ? सो शरीरादिक भी अविरुद्ध स्वभाव वाले होने से ज्ञान के प्रावारक मत होवें ? जो ज्ञान के विरुद्ध है वही प्रावरण बन सकता है । यदि प्रवाह रूप से चले पाये ज्ञान को अविद्या रोक देती है, अविद्या ज्ञान का विरोधक है, ऐसा मानते हैं तो मदिरा के समान इस पौद्गलिक कर्म को ही अविद्यापना होवे ? कोई विशेषता नहीं । कर्म भी आत्मा या ज्ञानादि का विरोधी ही है । पुनश्च अनुमान से आवरण को कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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