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प्रावरणविचारः
अत्रोच्यते-न शरोराद्यावरणम् । किं तहि ? तद्व्यतिरिक्त कर्म । तच्चानुमानतः प्रसिद्धम् ; तथाहि-स्वपरप्रमेयबोधैकस्वभावस्यात्मनो हीनगर्भस्थानशरीरविषयेषु विशिष्टाऽभिरतिः प्रात्मतव्यतिरिक्तकारणपूर्विका तत्त्वात् कुत्सितपरपुरुषे कमनीय कुलकामिन्यास्तन्त्राद्य पयोगजनितविशिष्टा. भिरतिवत् । तथा, भवभृतां मोहोदयः शरीरादिव्यतिरिक्तसम्बन्ध्यन्तरपूर्वको मोहोदयत्वात् मदिराद्य पयोगमत्तस्यात्म गृहादौ मोहोदयवत् ।
ननु चातः कर्म मात्रमेव प्रसिद्ध नावरणम् ; ततस्तत्सिद्धावेव प्रमाणमुच्यतां तत्रैव विवादा.
जैनः-अब यहां परवादी के अभिप्राय का निरसन किया जाता है, हम जैन शरीरादि को आवरण नहीं मानते हैं, किन्तु शरीर से व्यतिरिक्त कर्म नामक एक पुद्गल है उसे प्रावरण शब्द से कहा है, वह आवरण रूप कर्म अनुमान प्रमाण से सिद्ध होता है, उसी अनुमान को प्रस्तुत करते हैं-स्व-परको जानने का जिसका स्वभाव है ऐसे इस आत्माके हीन स्थान स्वरूप गर्भ, शरीर, पंचेन्द्रिय के विषयों में प्रीति होती है, यह प्रीति तो प्रात्मा से पृथक कोई अन्य कारण से होती है, क्योंकि वह विशिष्ट अत्यासक्तिरूप है, जैसे कोई कुत्सित व्यसनी पर पुरुष है उस पर यदि कोई सुन्दर कुलांगना प्रासक्त होती है तो उसका कारण कोई विशिष्ट मंत्र, या तंत्र वशीकरण, आदिक जरूर है, उसके बिना कुलवान स्त्री पर पुरुष पर आसक्त नहीं हो सकती है।
जैसे:- इस कुलवान स्त्री के परवश मंत्रादि के कारण से अयोग्य चेष्टा हुई वैसे ही प्रात्मा की शरीरादि में प्रासक्ति कर्म के कारण से हुई है। इसी विषय में दूसरा अनुमान प्रयोग है कि संसारी जीवों के मोह का उदय होता है वह शरीरादि से भिन्न ग्रन्य कोई निमित्त से होता है, क्योंकि उसमें मोहोदयपना है, जैसे मदिरा पीने से उन्मत्त हुए पुरुष के अपने गह आदि में मोहोदय रहता है ।
शंकाः- इन ग्रनुमानों से कर्ममात्र की सिद्धि हुई न कि प्रावरण की, प्रावरण सिद्ध करने के लिये ही प्रमाण दीजिये, क्योंकि पावरग के अस्तित्व में ही विवाद है ?
___समाधानः-- अच्छा तो सुनिये ! संसारी जीवों का ज्ञान संपूर्ण स्वविषय में आवरण सहित दिखायी देता है, क्योंकि यह ज्ञान अपने विषय में प्रवृत्ति नहीं कर पाता है, जो ज्ञान स्वविषय में अप्रवृत्तिरूप है वह सावरण होता है, जैसे पीलिया
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