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________________ प्रावरणविचारः ३१ दर्शनादिलक्षणान्तरङ्गा बहिरङ्गानुभवादिलक्षणा सामग्री गृह्यते, तस्या विशेषोऽविकलत्वम्, तेन विश्लेषितं क्षयोपशमक्षयरूपतया विघटितमखिलमवधिमनःपयंयकेवलज्ञानसम्बन्ध्याचरणम् अखिलं निश्शेषं वावरणं यस्यावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानत्रयस्थ तत्तथोक्तम् । अत्र च प्रयोगः-यद्यत्र स्पष्टत्वे सत्यवितथं ज्ञानं तत्तत्रापगताखिलावरणम् यथा रजोनीहाराद्यन्तरितवृक्षादी तदपगमप्रभवं ज्ञानम्, स्पष्टत्वे सत्यवितथं च क्वचिदुक्तप्रकारं ज्ञानमिति । तथाऽलीन्द्रियं तत् । मनोऽक्षानपेक्षत्वात् । तदनपेक्षं तत् सकलकलङ्कविकलत्वात् । तद्वि कलत्वं चास्यात्रैव प्रसार्धायष्यते । अत एव चाशेषतो विशदं तत् । यत्त नातीन्द्रियादिस्वभावं न तत्तदनपेक्षत्वादिविशेषणविशिष्टम् यथास्मदादिप्रत्यक्षम्, तद्विशेषणविशिष्टञ्चेदम्, तस्मात्तथेति । तथा मुख्यं तत्प्रत्यक्षम् अतीन्द्रियत्वात् स्वविषयेऽशेषतो विशदत्वाद्वा, यत्तु नेत्थं तन्न वम्, यथास्मदादिप्रत्यक्षम् , विशेष है, इस सामग्री विशेष से नष्ट हो गये हैं आवरण जिसके ऐसा यह प्रत्यक्ष है अर्थात् अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान की अपेक्षा क्षयोपशम रूप होना और केवलज्ञान की अपेक्षा क्षय होना ऐसे ज्ञानावरण जिसके हुए उसे मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं, अर्थात् अवधिज्ञानावरण और मन:पर्ययज्ञानावरण का क्षयोपशम होने से अवधिज्ञान तथा मन:पर्ययज्ञान होता है और केवलज्ञानावरण का नाश हो जाने से केवलज्ञान होता है ये ज्ञान मुख्य प्रत्यक्ष कहलाते हैं । यहां अनुमान के द्वारा इस प्रत्यक्ष ज्ञान की सिद्धि करते हैं: जो ज्ञान जिस विषय में स्पष्ट होकर सत्यरूप से जानता है वह उस विषय में पूर्ण रूप से प्रावरण रहित होता है, जैसे धूली, कुहरा आदि से ढके हुए वृक्ष आदि पदार्थ हैं। उनका आवरण हटने से जो ज्ञान होता है वह स्पष्ट होकर सत्य कहलाता है, ऐसे ही अवधि ज्ञानादिक स्पष्ट और सत्य है । यह मुख्य प्रत्यक्ष इन्द्रियां और मन की अपेक्षा नहीं रखता है अतः अतीन्द्रिय है, अपने आवरण के हटने से इन शानों में इन्द्रियादिकी अपेक्षा नहीं रहती कर्म का आवरण नष्ट होता है इस बात को अभी इस अध्याय में सिद्ध करने वाले हैं । आवरण के हट जाने से ही वह ज्ञान पूर्णरूप से विशद हो गया है, जो ज्ञान अतीन्द्रिय आदि गुणविशिष्ट नहीं होता वह पूर्ण विशद या इन्द्रियादि से अनपेक्ष भी नहीं होता, जेसे कि हम जैसे का प्रत्यक्ष ज्ञान ( सांव्यावहारिक प्रत्यक्षज्ञान ) अवधिज्ञानादि तीनों ज्ञान अतीन्द्रिय आदि विशेषण युक्त होते हैं अतः मुख्य प्रत्यक्ष कहलाते हैं । अनुमान सिद्ध बात है कि अतीन्द्रिय होने से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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