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________________ ६४२ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रामाण्य (प्रमारण का फल ) प्रमाण रूप ही है। चार आर्य सत्य दु:ख, समुदय, निरोध और मार्ग इनका वोध होना चाहिए । तथा पांच स्कंध-रूपस्कंध, वेदनास्कंध, संज्ञास्कंध, संस्कारस्कंध और विज्ञानस्कंध इनकी जानकारी भी होनी चाहिए, क्योंकि इनके ज्ञान से मुक्ति का मार्ग मिलता है। मुक्ति के विषय में बौद्ध की विचित्र मान्यता है, चित्त अर्थात् आत्मा का निरोध होना मुक्ति है। दीपक बुझ जाने पर किसी दिशा विदिशा में नहीं जाकर मात्र समाप्त हो जाता है उसी प्रकार आत्मा का अस्तित्व समाप्त होना मुक्ति है । “प्रदीप निर्वाण वदात्म निर्वाणम्' नैयायिकादि ने तो मात्र अात्मा के गुण ज्ञान आदिका अभाव मुक्ति में स्वीकार किया है किन्तु बौद्ध ने मूल जो आत्म द्रव्य है उसका ही अभाव मुक्ति में माना है उनकी मान्यता है कि पदार्थ चाहे जड़ हो चाहे चेतन प्रतिक्षण नये-नये उत्पन्न होते हैं पूर्व चेतन नयी संतान को पैदा करते हुए नष्ट हो जाता है जब तक इस तरह से संतान परम्परा चलती है तब तक संसार और जहां वह रुक जाती है वहीं निर्वाण हो जाता है। सृष्टि के विषय में बौद्ध लोग मौन हैं। बुद्ध से किसी शिष्य ने इस जगत के विषय में प्रश्न किया तो उन्होंने कहा था कि सृष्टि कब बनी ? किसने बनायी ? अनादि की है क्या ? इत्यादि प्रश्न तो बेकार हो हैं ? जीवों का क्लेश, दुःख से कैसे छुटकारा हो इस विषय में सोचना चाहिए । प्रतीत्य समुत्पाद, अन्यापोहवाद, क्षण भंगवाद, आदि बौद्धों के विशिष्ट सिद्धान्त हैं। प्रतीत्य समुत्पाद का दूसरा नाम सापेक्ष कारणवाद भी है। अर्थात् किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर अन्य वस्तु की उत्पत्ति । शब्द या वाक्य मात्र अन्य अर्थ की व्यावृत्ति करते हैं, वस्तु को नहीं बताते । जैसे किसी ने “घट' कहा सो घट शब्द घट को न बतलाकर अघट की व्यावृत्ति मात्र करता है इसी को अन्यापोह कहते हैं। प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण विशरणशील है यह क्षण भंगवाद है । इत्यादि एकान्त कथन इस मत में पाया जाता है। न्याय दर्शन न्याय दर्शन या नैयायिक मत में १६ पदार्थों का ( तत्वों का ) प्रतिपादन किया है, प्रमाण प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प पितण्डा, हेत्वाभास छल, जाति, निगृह स्थान इन पदार्थों का विस्तृत वर्णन न्याय वात्तिक आदि ग्रन्थों में पाया जाता है। प्रमाण प्रमेय, प्रमाता, प्रमिति इस प्रकार भी संक्षेप से तत्त्व माने जाते हैं, प्रमाण संख्या-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमा, आगम इस प्रकार नैयायिक ने चार प्रमाण माने हैं। प्रमाकरणं-प्रमाणं, अर्थात् प्रमा के करण को प्रमाण कहते हैं, कारक साकल्य प्रमा का करण है अतः प्रमाण माना गया है। प्रामाण्य वाद-प्रमाण में प्रमाण ता पर से ही पाती है क्योंकि यदि प्रमाण में स्वतः ही प्रामाण्य होता तो यह ज्ञान प्रमाण है या अप्रमाण है ऐसा संशय नहीं हो सकता था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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