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________________ अभिहितान्वयवादः विसर्जनीया इति भगवानुपवर्ष : " [ शाबरभा० १११५ ] इति । यथैव हि वर्णोऽनंशः प्रकल्पितमात्राभेदस्तथा 'गौ:' इति पदमप्यनंशमपोद्धृताकारादिभेदं स्वार्थप्रतिपत्तिनिमित्तमवसीयते । इत्यप्यनालोचिताभिधानम्; वाक्यस्यैवं तात्त्विकत्वप्रसिद्ध:, तद्व्युत्पादनार्थं ततोऽपोद्धृत्य पदानामुपदेशाद्वाक्यस्यैव लोके शास्त्रे वार्थप्रतिपत्तये प्रयोगार्हत्वात् । तदुक्तम् ---- " द्विधा कैश्चित्पदं भिन्नं चतुर्धा पंचधापि वा । अपोद्धृत्यैव वाक्येभ्यः प्रकृतिप्रत्ययादिवत् || " [ ] इति । ततः प्रकृत्याद्यवयवेभ्यः कथञ्चिद्भिन्नमभिन्नं च पदं प्रातीतिकमभ्युपगन्तव्यम्, न तु सर्वथाऽनंशं वर्णवत्तग्राहकाभावात् । तद्वत्पदेभ्यः कथञ्चिद्भिन्नमभिन्नं च वाक्यं द्रव्यभाववाक्यभेदभिन्नं प्रोक्तलक्षणलक्षितं प्रतीतिपदमारूढमभ्युपगन्तव्यम् श्रलं प्रतीत्यपलापेनेति । ६१७ प्रकृति प्रादि को पद से पृथक् करके पद की व्युत्पत्ति के लिये कथंचित् कदाचित् उनका कथन किया जाता है । जैसा कि कहा है- 'गौ: ' इस पद में कौन सा शब्द पद संज्ञक है ? ऐसा प्रश्न होने पर भगवान् उपवर्ष उत्तर देते हैं कि गकार, कार और विसर्ग ये पद संज्ञक हैं इत्यादि । जिस प्रकार वर्ण प्रनंश है तो भी उसमें मात्रा के निमित्त से भेद प्रकल्पित करते हैं, उसी प्रकार "गौः" यह पद अनंश है तो भी उसमें कल्पित प्रकारादिभेद ( गकारादि भेद) अपने गो अर्थ की प्रतिपत्ति के लिये करते हैं ? Jain Education International समाधान - यह कथन भी प्रविचार पूर्ण है, इस तरह तो वाक्य का तात्विक - पना भली प्रकार से सिद्ध होता है, उपर्युक्त पद सिद्धि के लिये किया गया प्रतिपादन वाक्य में भी घटित होता है कि लोक में अथवा शास्त्र में अर्थ की प्रतिपत्ति के लिये वाक्य का प्रयोग ही योग्य होता है, केवल वाक्य की निष्पत्ति के लिये उससे पदों को पृथक् करके उपदेश दिया जाता है इत्यादि । जैसा कि कहा है- किन्हीं विद्वानों ने वाक्यों से पदों को पृथक् करके दो प्रकारों में अर्थात् सुवंत और तिडंत में विभाजित किया है, किन्हीं ने नाम, ग्राख्यात, निपात और कर्म प्रवचनीय रूप चार प्रकार से विभाजित किया है और किन्हीं ने उक्त चार प्रकार में उपसर्ग मिलाकर पांच प्रकार से विभाजित किया है, जैसे कि प्रकृति और प्रत्ययादि से पद को विभक्त करते हैं ||१|| इत्यादि । वास्तविक बात तो यह है कि - प्रकृति आदि अवयवों से पद कथंचित् भिन्न और कथंचित् भिन्न है ऐसा प्रतीति सिद्ध सिद्धांत स्वीकार करना चाहिए, पद को सर्वथा प्रनंश रूप नहीं मानना चाहिए, क्योंकि जैसे वर्ण को सर्वथा प्रनंश रूप ग्रहण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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