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________________ वाक्यलक्षण विचारः ६०५ क्षुत्वं हि प्रतिपत्तधर्मो वाक्येष्वध्यारोप्यते, न पुनः शब्दधर्मस्तस्याचेतनत्वात् । स चेत्प्रतिपत्ता तावतार्थं प्रत्येति, किमित्यपरमाकाङ्क्षत् ? पक्षधर्मोपसंहारपर्यन्तसाधनवाक्यादर्थप्रतिपत्तावपि निगमनवचनापेक्षायाम् निगमनान्तपञ्चावयववाक्यादप्यर्थप्रतिपत्तौ परापेक्षाप्रसंगान क्वचिन्निराकाङ्क्षत्वसिद्धिः । तथा च वाक्याभावान वाक्यार्थप्रतिपत्तिः कस्यचित्स्यात् । ततो यस्य प्रतिपत्तुर्यावत्सु परस्परापेक्षेषु पदेषु समुदितेषु निराकाङ्क्षत्वं तस्य तावत्सु वाक्यत्वसिद्धिरिति प्रतिपत्तव्यम् ।। एतेन प्रकरणादिगम्यपदान्तरसापेक्षश्रूयमाणसमुदायस्य निराकाङ्क्षस्य सत्यभामादिपदवद्वाक्यत्वं प्रतिपादितं प्रतिपत्तव्यम् । समाधान-यह शंका ठीक नहीं, किसी प्रतिपत्ता पुरुष को उक्त अग्रिम वाक्य की अपेक्षा नहीं भी होती । निराकांक्षत्व धर्म ( अपेक्षा नहीं होना ) तो प्रतिपत्ता का धर्म है ( जानने वाले चेतन आत्मा का ) उस धर्म का वाक्यों में आरोप मात्र किया जाता है, यह धर्म शब्द का नहीं है क्योंकि शब्द तो अचेतन है। अब वह प्रतिपत्ता पुरुष उतने साधन वाक्य मात्र से साध्यार्थ को ज्ञात कर लेता है तो अन्य वाक्य की क्यों अपेक्षा करेगा ? अर्थात् नहीं करेगा। यदि पक्ष धर्मोपसंहार स्वरूप उपनय पर्यंत के साधन वाक्य से अर्थ प्रतीति हो जाने पर भी निगमन वाक्य की अपेक्षा होती ही है ऐसा आग्रह करेंगे तो निगमन तक पंच अवयव स्वरूप वाक्य से अर्थ प्रतीति होने पर भी पुनः वाक्यांतर की अपेक्षा मानना होगी और इस तरह किसी भी वाक्य में निराकांक्षत्व सिद्ध नहीं होगा, फिर तो कोई वाक्य ही नहीं कहलायेगा ? क्योंकि आगे आगे वाक्यांतर की अपेक्षा बढ़ती ही जायगी, और इस तरह किसी भी वाक्य से अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं हो सकेगी। इसलिये जिस प्रतिपत्ता पुरुष को जितने परस्पर सापेक्ष पदों के समुदाय में निराकांक्षत्व होता है उस पुरुष को उतने में ही वाक्य की सिद्धि हो जाती है ऐसा स्वीकार करना चाहिए । एक अन्य प्रकार का भी वाक्य होता है, वह इस प्रकार होता है-प्रकरण आदि से जो गम्य होता है ऐसे पदांतर की जिसमें अपेक्षा रहती है एवं प्रकरण बाह्य पद की अपेक्षा जिसमें नहीं होती ऐसे पद मात्र को अथवा ऐसे पद समूह को भी वाक्य कहते हैं, जैसे 'सत्यभामा' यह एक पद है तो इसमें प्रकरण प्राप्त तिष्ठति या भवति पद स्वयं कल्पना से मानकर उससे वाक्यार्थ निकाला जाता है। अतः पूर्वोक्त वाक्य लक्षण में इस वाक्य का भी संग्रह हुमा समझना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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