SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 641
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६६ प्रमेयकमलमार्तण्डे कथं चैवं शब्दस्फोटवद्गन्धादिस्फोटोप्यऽर्थप्रतीतिनिमित्तं न स्यात् ? यथैव हि शब्दः कृतसंकेतस्य क्वचिदर्थे प्रतिपत्तिहेतुस्तथा गन्धादिरप्यविशेषात् । एवंविधमेकं गन्धं समाघ्राय स्पर्श च संस्पृश्य रसं चास्वाद्य रूपं चालोक्य त्वयैवंविधोर्थः प्रतिपत्तव्यः' इति समयग्राहिणां पुनः क्वचित्तादृशगन्धाधुपलम्भात् तथाविधार्थनिर्णयप्रसिद्धो गन्धादि विशेषाभिव्य गयो गन्धादिस्फोटोऽस्तु [ वर्ण ] विशेषाभिव्यंगयपदा दिस्फोटवत् । एतेन हस्तपादकरणमात्रिकाङ्गहारादिस्फोटोप्यापादितो द्रष्टव्यः। पदादिस्फोट एव, न तु स्वावयव क्रियाविशेषाभिव्यंगयो हंसपक्ष्मादिर्हस्तस्फोटः, विकुट्टितादिलक्षणः पादस्फोटः, हस्तपाद यदि शब्द का स्फोट अर्थ प्रतीति का निमित्त है ऐसा स्वीकार करते हैं तो गंध का स्फोट, रसका स्फोट आदि भी क्यों न स्वीकार किये जांय ? क्योंकि जिस प्रकार शब्द जिसने संकेत को जाना है ऐसे पुरुष के किसी पदार्थ में ज्ञान का हेतु होता है उस प्रकार गंवादि भी ज्ञान का हेतु होता है कोई विशेषता नहीं है । जैसे शब्द या स्फोट में संकेत होता है कि इस शब्द का यह अर्थ है वैसे गंधादि में भी संकेत होता है कि इस प्रकार के एक गंध को सूधकर, स्पर्श को छूकर, रसको चखकर और रूप को देखकर तुम ऐसे पदार्थ को जानना, इस तरह किसी पुरुष ने संकेत कराया पुन: किसी स्थान पर उस उस प्रकार के गंध रस आदि को प्राप्त कर उस प्रकार के अर्थ का निर्णय करते ही हैं, इसलिये गंधादि विशेष अभिव्यंग्य ऐसा गंधादि स्फोट भी स्वीकार करना चाहिये, जैसे कि वर्ग विशेष अभिव्यंग्य पदादि स्फोट स्वीकार करते हो ? इसी तरह आप को हस्तस्फोट, पादस्फोट, करणस्फोट, मात्रिकास्फोट, अंगहारस्फोट आदि को भी मानने का प्रसंग पाता है, उसका प्रतिपादन भो हमने गंधादिस्फोट के समान कर लिया समझना चाहिए । वैयाकरणवादी-केवल पदादिस्फोट ही सिद्ध होता है, न कि अपने अवयवों की क्रिया विशेष से अभिव्यंग्य होने वाले हंसपक्ष्मादिरूप हस्तस्फोट ( हंस के आकार रूप हाथ को बनाना ) या विकुहित लक्षण वाला पादस्फोट ( पैरों को घुमाना ) हस्त तथा पादका एक साथ व्यापार होने रूप करणस्फोट, दो करण रूप मात्रिका स्फोट, मात्रिका समूह रूप अंगहार स्फोट । अभिप्राय यह है कि ये हस्तादि स्फोट केवल स्फोट नाम से भले ही कहे जाते हों किन्तु शब्दस्फोट में जैसा स्फोट का लक्षण पाया जाता है वैसा इनमें नहीं पाया जाता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy