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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
विषयमपरिच्छिन्दत् ज्ञानम् 'अस्ति' इति युक्तम्, अन्यथा सर्वत्र सर्वदा सर्वस्य सदनिवार्य भवेदित्यप्यसारम् ; तत्रोपनीतस्य नीलादेस्तेनैव ग्रहरणोपलम्भात् । तदेव तदन्यज्ज्ञात (न) मिति चेत्कि - मिदानीं प्रतिविषयं प्रकाशकस्य भेदः ? तथाभ्युपगमे प्रदीपादेरपि प्रतिविषयमन्यत्वप्रसङ्गः । प्रत्यभिज्ञानमुभयत्र समानम् ।
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नन्वर्थाभावेपि ज्ञानसद्भावेऽतीतानागते व्यवहिते च तत्स्यात्सन्निहितवत् । नतु ( ननु ) तत्र तत्स्यादिति कोर्थः ? किं तत्रोत्पद्य ेत तद्ग्राहकं वा भवेदिति ? न तावत्तत्रोत्पद्य ेत; प्रात्मनि तदु
पड़ेगा, अर्थात् घट को प्रकाशित करनेवाला दीपक पृथक है और पटको प्रकाशित करनेवाला दीपक पृथक है ऐसा मानना होगा। तुम कहो कि दीपक में तो प्रत्यभिज्ञानके कारण जिस दीपक ने घटको प्रकाशित किया पटको वही प्रकाशित करता है | " इसप्रकार का एकल सिद्ध होता है, प्रत्येक विषय में भेद की बात नहीं रहती ? सो ठीक है, यही प्रत्यभिज्ञानकी बात ज्ञानके संबंध में भी सुघटित होती है, उसमें भी " जो आत्मा नील ज्ञानसे परिणत था वही अन्य ज्ञानसे परिणत है" ऐसा एकल सिद्ध होता है ।
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शंकाः – पदार्थ के अभाव में भी ज्ञानका सद्भाव होवेगा तो प्रतीतके पदार्थ में श्रनागतके पदार्थ में और व्यवहित के पदार्थ में भी ज्ञान होवेगा, जैसे कि निकटवर्ती वर्त्तमानके पदार्थ में होता है ?
समाधान - " अतीत आदिमें वह होवेगा" इस वाक्यका क्या अर्थ करना इसपर पहले सोचे ! अतीत आदिमें ज्ञान उत्पन्न होता है अथवा उनको ग्रहण करता है ? यदि उत्पन्न होनेका अर्थ मानते हैं तो गलत है, ज्ञान अतीत प्रादिमें उत्पन्न होता हो नहीं वह तो आत्मामें होता है तथा प्रतीत आदिको ग्रहण करता है ऐसा दूसरा पक्ष माने तो भी ठीक नहीं क्योंकि ज्ञानके लिये वे प्रतीतादिक प्रयोग्य है - जानने योग्य नहीं है ।
यह भी बात है कि उत्पन्न हुआ ज्ञान सभी पदार्थोंको जाने ही ऐसा नियम नहीं है, ज्ञान तो स्वयोग्य वस्तुका ग्राहक हुआ करता है । कारणके पक्ष में भी यही प्रश्न होता है जो ज्ञानके विषय में किया है, कुंभकार आदि कर्त्ता घट आदि पदार्थ के कारण है, वह कार्यद्वारा उपकृत हुए विना ही कार्यको करते हैं, सो इस विषय में प्रश्न
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