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________________ ५६३ किंच, बुद्ध्याकारे शब्दसंकेताभ्युपगमेऽपोहवादिपक्ष एवाभ्युपगतो भवेत्; तथाहि अपोहवादिनापि बुद्धयाकारो बाह्यरूपतयाध्यवसितः शब्दार्थोभीष्ट एव, अर्थविवक्षां च कार्यतया शब्दो गमयति यथा धूमग्निमिति । अपोहवादः अत्र प्रतिविधीयते । कृतसमया एव ध्वनयोऽर्थाभिधायकाः । समयश्च सामान्य विशेषात्मकेर्थेऽभिधीयते न जात्यादिमात्रे । तथाभूतश्चार्थो वास्तव : संकेतव्यवहारकालव्यापकत्वेन प्रमाणसिद्ध: 'सामान्यविशेषात्मा तदथ । ' [ परीक्षामु० ४। १ ] इत्यत्रातिविस्तरेण वर्णयिष्यते । सामान्यविशेषयोर्वस्तु भूतयोस्तत्सम्बन्धस्य चात्र प्रमाणतः प्रसाधयिष्यमाणत्वात् । न चात्राप्यनन्त्याद्वयक्तीनां भावार्थ - शब्दों के द्वारा होने वाला संकेत स्वलक्षण, जाति इत्यादि में नहीं होता किन्तु अपोह में होता है ऐसा हम बौद्ध मानते हैं, कोई कोई वादी अर्थाकार हुई बुद्धि में संकेत का होना स्वीकार करते हैं वह तो कुछ अभिप्र ेत है क्योंकि वह आकार पोह जैसा ही काल्पनिक है । स्वलक्षण रूप वास्तविक पदार्थ में संकेत इसलिये नहीं होता कि वह क्षणिक एवं निरंश है अतः व्यवहार काल तक नहीं रहता सामान्य रूप जाति भी काल्पनिक एवं क्षणिक होने से संकेत योग्य नहीं । अन्त में यही मानना होगा कि शब्द द्वारा प्रपोह में संकेत होता है । जैन - अब यहां बौद्धों का उपर्युक्त विवेचन खण्डित किया जाता है - संकेत के किये जाने पर ही शब्द अर्थ के अभिधायक ( वाचक ) होते हैं और वह संकेत सामान्य विशेषात्मक पदार्थ में ही होता है न कि केवल सामान्यरूप जाति या विशेष में । तथा उस प्रकार का संकेतित हुया पदार्थ काल्पनिक न होकर वास्तविक है क्योंकि संकेत काल से व्यवहार काल तक व्यापक रूप होने से प्रमाण द्वारा सिद्ध होता है । इस संकेत के विषयभूत पदार्थ का आगे ( तृतीय भाग में ) " सामान्य विशेषात्मा तदर्थे विषय:" इस सूत्र की टीका में प्रति विस्तार पूर्वक वर्णन करेंगे। वहां पर हम च्छी तरह प्रत्यक्षादि प्रमाण द्वारा सिद्ध करेंगे कि सामान्य और विशेष वास्तविक गुणधर्म हैं एवं इनका सम्बन्ध भी काल्पनिक न होकर वास्तविक तादात्म्यस्वरूप है । बौद्ध ने कहा था कि व्यक्तियां अनंत होने के कारण तथा उनका परस्पर में अनुगमन नहीं होने के कारण उनमें संकेत होना शक्य है सो कथन प्रयुक्त है, व्यक्तियों में संकेत भली प्रकार से हो सकता है क्योंकि उनमें सदृश परिणाम ( गोत्वादि सामान्य ) पाया जाता है उस सदृश परिणाम की अपेक्षा लेकर क्षयोपशम विशेष के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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