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________________ EEEEEEEEE ::::::১999999:9:১১:১৯ १८ अपोहवादः 06666666666666666666666681 EEEEEEEEE ननु चार्थप्रतिपादकत्वमेषामसम्भाव्यम्, य एव हि शब्दाः सत्यर्थे दृष्टास्ते एवातीतानागतादौ तदभावेपि दृश्यन्ते । यदभावे च यद्द्द्दृश्यते न तत्तत्प्रतिबद्धम् यथाऽश्वाभावेपि दृश्यमानो गौर्न तत्प्रतिबद्ध:, अर्थाभावेपि दृश्यन्ते च शब्दाः, तन्नैतेऽर्थप्रतिपादकाः किन्त्वन्यापोहमात्राभिधायकाः । तदप्यविचारितरमरणीयम्; अर्थवतः शब्दात्तद्रहितस्यास्यान्यत्वात् । न चान्यस्य व्यभिचारेऽन्यस्याप्यसौ बौद्ध - जैन शब्द में सहज योग्यता आदि के होने के कारण अर्थ की प्रतीति होना सिद्ध करते हैं अर्थात् शब्द अर्थका प्रतिपादन करते हैं ऐसा इनका कहना है किंतु शब्द द्वारा अर्थका प्रतिपादन होना असंभव है, क्योंकि जो शब्द विद्यमान ग्रर्थ में देखे ये हैं वे ही प्रतीत अनागत काल में अर्थ के नहीं होने पर भी देखे जाते हैं ? जिसके नहीं होने पर जो दिखायी देता है वह उसके साथ सम्बद्ध ( अविनाभावी ) नहीं होता, जैसे अश्व के नहीं होने पर गो दिखायी देने से वह उसके साथ सम्बद्ध नहीं मानी जाती, पदार्थ के प्रभाव में भी शब्दों की उपलब्धि होती ही है अतः ये अर्थों के प्रतिपादक नहीं हो सकते, शब्द तो केवल अन्यापोह के अभिद्यायक ( प्रतिपादक ) होते हैं । अर्थात् शब्द द्वारा अन्य अर्थ का व्यावर्त्तन मात्र होता है न कि विवक्षित अर्थ की प्रतिपत्ति | पोते प्रन्यार्थः येनासौ अन्यापोहः शब्द इति । ऐसा अन्यापोह का निरुक्ति अर्थ है अर्थात् गो प्रादि शब्द गो अर्थ के वाचक न होकर केवल अश्वादि अर्थ के व्यावर्त्तक हैं । Jain Education International जैन - यह कथन अविचारपूर्ण है, अर्थ के सद्भाव में होने वाले शब्दों से अर्थाभाव में होने वाले शब्द भिन्न हैं, अर्थाभाव में होने वाले शब्दों का व्यभिचार अर्थ www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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