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________________ ५३२ प्रमेयकमलमार्तण्डे इति । ततो लौकिको वैदिको वा शब्द: सहजयोग्यतासंकेतवशादेवार्थप्रतिपादकोऽभ्युपगन्तव्यः प्रकारान्तरासम्भवात् । स्वयं नहीं कहते हैं कि यह अर्थ है, इसका यह ग्रर्थ नहीं होता इत्यादि, ऐसा अर्थ तो पुरुषों द्वारा किया जाता है और वे पुरुष रागादि युक्त ही होते हैं ।।१।। इस कारिका से निश्चित होता है कि शब्द अपने अर्थको नहीं बतलाते हैं । इसलिये यह निष्कर्ष निकलता है कि लौकिक शब्द हो चाहे वैदिक शब्द हो दोनों ही सहज योग्यता और संकेत होने के कारण ही अर्थके प्रतिपादक हुया करते हैं। अर्थ प्रतिपत्ति के लिये अन्य कोई प्रकार नहीं पाया जाता । विशेषार्थ- शब्द द्वारा घटादि पदार्थ का ज्ञान किस कारण से होता है इस विषय में विवाद है मीमांसक शब्द को नित्य मानते हैं और उस नित्य शब्द का स्ववाच्य के साथ नित्य सम्बन्ध भी मानते हैं किन्तु यह मान्यता असमीचीन है, क्योंकि शब्द और अर्थका सम्बन्ध यदि नित्य है तो एक शब्द एक ही अर्थका वाचक हो सकेगा तथा हमेशा उसी एक अर्थको ही बतायेगा किन्तु ऐसा नहीं होता। तथा शब्द नित्य न होकर अनित्य होता है ऐसा अभी शब्द नित्यवाद का निराकरण करते हुए निश्चय कर आये हैं। मीमांसक की इस विषय में शंका है कि यदि शब्द और अर्थका सम्बन्ध अनित्य मानते हैं उसमें संकेत किस प्रकार हो सकता है ? क्योंकि जैन शब्द को अनित्य मानते हैं अतः जिस शब्द में संकेत हुआ वह तो नष्ट हो चुकता है तथा जिस शब्दका अर्थके साथ सम्बन्ध होता है वह भी नष्ट हो जाता है तब इस घट शब्द का यह वाच्य है इत्यादि रूप से संकेत कैसे होवे ? प्राचार्य ने इसका समाधान किया है कि शब्द अनित्य है किन्तु तत् सदृश अन्य शब्द उत्पन्न होता रहता है उसमें संकेत होता है, अमुक शब्दका अमुक अर्थ होता है इत्यादि रूप से वाच्य-वाचक सम्बन्ध और उसमें संकेत होना ये सब परंपरागत चले आते हैं, गुरु से शिष्य को, माता पिता से बालक को संकेत होता रहता है, यह संकेत परंपरा गंगा प्रवाह के समान चली आ रही है अर्थात् गंगा की धारा वही नहीं रहती अपितु प्रतिक्षण नयी नयी बहती चलती है। इसी प्रकार शब्द और अर्थका सम्बन्ध तथा उनमें होने वाला संकेत नित्य बना नहीं रहता किन्तु गुरु शिष्यादि की परंपरा से चला आ रहा है। यहां तो शब्द और अर्थ के सम्बन्ध का विषय है अतः उनके लिये प्रतिपादन किया है ऐसे ही शब्द तथा पदार्थ भी कथंचित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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