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प्रमेयकमल मार्तण्डे
समान अन्य धूम को देखकर अग्नि का ज्ञान होता है। आपने शब्द को एकत्वरूप माना है किंतु शब्द में अनुगत प्रत्यय से अनेकपना सिद्ध होता है, तथा एक ही पुरुष एक ही समय में अनेक गो शब्द को विभिन्न देशों से ग्रहण कर लेता है इसलिये भी शब्द अनेक हैं। आप तालु आदि के व्यापार से व्यञ्जक वायु उत्पन्न होना मानते हैं तो उनसे शब्द उत्पन्न होते हैं ऐसा क्यों नहीं मानते ? ध्वनि शब्दों की व्यञ्जक ही है तो उस व्यंजक के होते ही नियम से शब्द क्यों उपलब्ध होता है ? व्यंजक होते ही व्यंग्य होवे ऐसा कोई नियम नहीं, दीप व्यंजक के होते हुए घटादि व्यंग्य नियम से हो ही ऐसा दिखाई नहीं देता है।
तथा अभिव्यंजक वायु से शब्द व्यक्त होते हैं तो एक साथ सब शब्द व्यक्त होना चाहिये थे ? क्योंकि सभी शब्द मौजूद हैं, यदि कहा जाय कि जैसे घट रूप कार्यों की क्रमशः उत्पत्ति होती है वैसे शब्दों की क्रमशः अभिव्यक्ति होती है तो यह भी असत है घट रूप कार्य स्वकारण कलाप से उत्पन्न होता है न कि अभिव्यक्त, अतः वह क्रमशः होना संगत है किन्तु अभिव्यक्ति में क्रम नहीं होता, जैसे एक घड़ा बनाने की इच्छा से कुभकार ने मिट्टी का एक पिंड चाक पर रखा, तो उससे घड़ा रूप एक ही कार्य उत्पन्न होगा, अन्य नहीं, किन्तु व्यंजक ऐसा नहीं होता, किसी ने अन्धकार में रखे हुए किसी एक घड़े को ढूढने के लिए दीपक जलाया, वह दीपक उस घड़े को तो प्रकाशित करेगा ही, साथ ही समीप में रखे हुए अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करेगा। कहने का भाव यह है कि मृत् पिंड एक काल में एक ही घट का कारण है, किंतु दीपक विद्यमान सभी पदार्थों का प्रकाश क या अभिव्यंजक है। इसी प्रकार शब्द की व्यंजक एक वायु जब उसे अभिव्यक्त करे, तब सभी शब्दों की अभिव्यक्ति एक साथ होनी चाहिये, सो होती नहीं है। इस प्रकार यह दोष केवल अभिव्यक्ति के पक्ष में आता है न कि उत्पत्ति के पक्ष में । अतः निश्चित होता है कि तालु आदि के व्यापार से शब्दों की उत्पत्ति ही होती है न कि अभिव्यक्ति, यदि अभिव्यक्ति होती तो सभी शब्दों की होनी चाहिए, इसलिये शब्द को नित्य मानना सिद्ध नहीं होता है ।
।। समाप्त ।।
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