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________________ शब्दनित्यत्ववादः ४६७ मेनापेक्षन्तेऽकिञ्चित्करेऽपेक्षाऽसम्भवात् ? तद्ग्रहणे योग्यतेति चेत्; किमात्मनः शब्दस्य, इन्द्रियस्य वा ? ग्राद्यविकल्पद्वये सर्वदोपलम्भोऽनुपलम्भो वा स्यात् । इन्द्रियसंस्कारस्तु निराकरिष्यते । यदप्युक्तम् – यथैवोत्पद्यमानोऽयमित्यादि, तदप्यसंगतम् ; न हि दिगाद्यपेक्षयाऽस्माभिस्तद्ग्रहणमिष्यतेऽपि तु श्रवणान्तर्गतत्वेन । अतो यस्यैव श्रवणान्तर्गतो यः शब्दः स तेनैव गृह्यते । सर्वगतवर्णपक्षे तु नायं परिहारो निखिलवर्णानां सकलप्रतिपतृश्रवणान्तर्गतत्वेन तथैवोपलम्भप्रसंगात् । आवरण विगमः शब्दसंस्कार:; इत्यप्यसत्यम्; यतः प्रमाणान्तरेण शब्दसद्भावे सिद्ध े तस्यावरणं सिद्धय ेत् स्पार्शनप्रत्यक्ष प्रतिपन्ने घटेऽन्धकारादिवत् । न चासौ सिद्धः । तत्कथमस्यावरणम् ? कुछ किये बिना तो उनकी अपेक्षा होना अशक्य है । यदि कहा जाय कि शब्द ग्रहण की योग्यता लाना व्यंजक ध्वनि का कार्य है तो वह योग्यता प्रात्मा की है या शब्द की अथवा इन्द्रिय की ? प्रथम के दो पक्ष माने तो या तो शब्दों का सर्वदा उपलंभ ही होगा या सर्वदा अनुपलंभ ही होगा । व्यंजक द्वारा इन्द्रिय में शब्द ग्रहण की योग्यता लायी जाती है ऐसा इन्द्रिय संस्कार का पक्ष तो आगे निराकृत होने वाला ही है । "जैसे उत्पद्यमान यह शब्द सबके द्वारा सुनायी नहीं देता" इत्यादि पूर्वोक्त कथन भी असंगत है, क्योंकि हम जैन दिशादि की अपेक्षा से शब्द का ग्रहण होना नहीं मानते अपितु कर्ण के अंतर्गत होने की अपेक्षा से मानते हैं । प्रसिद्ध ही है कि जिस पुरुष के कर्ण के अंतर्गत जो शब्द होता है वह उसी के द्वारा ग्रहण होता है । किन्तु आपके वर्ण को सर्वगत मानने के पक्ष में उक्त रीत्या प्रति प्रसंग का परिहार नहीं हो सकता, आपके यहां तो सभी वर्णं सभी प्रतिपत्ता पुरुषों के कर्गान्तिर्गत होने से सर्वदा उपलब्ध होने का प्रसंग अवश्य प्राता है । अतः प्रावरण का विगम हो जाना शब्द संस्कार है ऐसा आठवां विकल्प भी सत्य है, क्योंकि किसी प्रमाणांतर से शब्द का सद्भाव सिद्ध होवे तो उसका आवरण सिद्ध हो सकता है जैसे कि स्पर्शनेन्द्रिय जन्य प्रत्यक्ष से घटके ज्ञात होने पर उसमें अंधकार आदि का आवरण आना सिद्ध होता है । किन्तु शब्द अभी तक सिद्ध नहीं हो पाया उसका आवरण किस प्रकार सिद्ध हो सकता है ? तथा आपने शब्द को नित्य माना है, नित्य पदार्थ अनाधेय और ग्रहे ( आरोप आदि के प्रयोग्य) होता है अतः उसके लिये आवरण का विगम होना भी अकिंचित्कर (व्यर्थ ) है किन्तु किसीका प्रावरण प्रकिंचित्कर नहीं होता अन्यथा अति प्रसंग होगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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