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________________ ४८० प्रमेयकमलमार्तण्डे तदप्यसारम्; यतो यादातादिधर्म रहितोऽकारादिस्तत्सहितश्च ध्वनिः रक्तेत रस्वभावजपाकुसुमस्फटिकवत् क्वचिदुपलब्धः स्यात् तदा स्यादेतत् 'अन्यधर्मस्तदारोपात्तद्धर्मतयेवावभाति' इति । न चासौ स्वप्नेपि तथोपलभ्यते । शब्दधर्मतया चैते प्रतीयमाना यद्यन्यस्येष्यन्तेऽन्यत्र कः समाश्वासहेतुः ? बाधकाभावश्चेत्सोत्रापि समानः। विपरीतदर्शनं हि बाधकम्, यथा द्विचन्द्रदर्शनस्यैकचन्द्रदर्शनम् । न चात्र तदस्ति-उदात्तादिधर्मात्मकस्यैवाकारादेः सर्वदा प्रतीतेः । तथापि तत्कल्पने रक्तादिधर्मरहितस्य घटादेर्दर्शनं तथैव कल्प्यताम् । तथाविधस्यानुपलम्भादसत्त्वम्; शब्देपि समानम् । किञ्चेदं बुद्ध स्तीवत्वं नाम ? किं महत्त्वरहितस्यार्थस्य महत्त्वेनोपलम्भः, यथाऽवस्थितस्याऽत्यन्तस्पष्टतया वा ? प्रथमे विकल्पे भ्रान्तताऽस्याः स्यात् । 'सा च पट्वी भवत्येव महातेजःप्रकाशिते जैन-यह कथन असार है, आप जैसा कह रहे हैं वैसा उदात्त आदि धर्म रहित प्रकार आदि स्वर उपलब्ध होते तथा ध्वनियां उन उदात्तादि धर्मों से युक्त कहीं उपलब्ध होती तब तो उन ध्वनियों के धर्मों का अकारादि वर्गों में आरोप कर लेते, जैसे कि लाल रंग युक्त जपा कुसुम और सफेद स्फटिक पृथक् उपलब्ध होते हैं तब लाल रंग का स्फटिक में आरोप हो जाता है, किन्तु उदात्त आदि धर्म रहित वर्ण कभी स्वप्न में भी उपलब्ध नहीं होते । शब्द के धर्म रूप से प्रतीत होते हुए भी उनको दूसरे के माना जाय तो अन्यत्र कैसे विश्वास होगा कि यह घट में दिखाई देने वाले रूप आदिक घट के हैं अथवा अन्य के द्वारा आरोपित हैं ? बाधकाभाव होने से घट में रूपादि धर्म निजी माने जाते हैं ऐसा कहो तो यही बात शब्द में है। उसमें भी उदात्तादि धर्म दिखायी देते हैं वे उसी के हैं आरोपित नहीं, क्योंकि उसमें कोई बाधा नहीं है । बाधा तो विपरीत दिखाई देने से आती है, जैसे कि दो चन्द्र का दिखना एक चन्द्र दर्शन से बाधित होता है। ऐसा विपरीत दर्शन शब्द में नहीं है, शब्द में तो उदात्तादि धर्म रूप अकारादि की सर्वदा प्रतीति होती है, फिर भी उनको आरोपित मानेंगे तो घट अादि के लाल आदि धर्म को भी प्रारोपित मानना पड़ेगा। यदि लाल आदि धर्म से रहित घट का अनुपलम्भ होने से उस तरह के घट का असत्व मानते हैं तो यही बात शब्द में है, उदात्तादि धर्म रहित शब्द का अनुपलम्भ होने से उस तरह के शब्द का असत्व ही है। किंच, बुद्धि की तीव्रता किसे कहते हैं महत्व रहित पदार्थ को महत्व रूप जानना बुद्धि की तीव्रता है अथवा जैसा पदार्थ है वैसा अत्यन्त स्पष्ट रूप से जानना बुद्धि की तीव्रता है ? प्रथम विकल्प कहो तो वह बुद्धि की तीव्रता भ्रान्त कहलायेगी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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