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________________ ४७८ प्रमेयकमलमार्तण्डे ' यच्चोक्तम्-'यो यो गृहीतः' इत्यादि; तदप्युक्तिमात्रम्; पक्षस्यानुमानबाधितत्वात् । तथाहिअनेको गोशब्द एके नेकदा भिन्न देशस्वभावतयोपलभ्यमानत्वाद् घटादिवत् । न चानेकप्रतिपत्त भिभिन्नदेशतयोपलभ्यमानेनादित्यादिना, कालभेदेन भिन्नदेशादितयोपलभ्यमानेन देवदत्तेन वा व्यभिचारः; 'एकेनैकदा' इति विशेषणद्वयोपादानात् । एकेनैकदा दर्शनस्पर्शनाभ्यां भिन्न स्वभावतयोपलभ्य मानेन घटादिना वा; 'भिन्नदेशतया' इति विशेषणात् । जलपात्रसंक्रान्तादित्यादिप्रतिबिम्बैस्तद्वयभिचारः; तेषामग्रेऽनेकत्वप्रसाधनात् । तथाप्यत्र सर्वगतत्वादिधर्मसम्भवे घटादावपि सोऽस्तु 'न चास्याऽवयवाः सन्ति येन वत्तत भागशः। घटो वर्तत इत्येव तत्र सर्वात्मकश्च सः ।।" कहलाता है वैसे ही संकेत कालीन शब्द व्यवहार काल में नहीं रहते हुए भी उसके सदृश अन्य शब्द के द्वारा घट आदि पदार्थ का होने वाला ज्ञान सत्य कहलाता है। पहले कहा गया था कि जो जो शब्द ग्रहण किया है वही सर्वत्र देशों में विद्यमान है इत्यादि, किन्तु यह कथन अयुक्त है, इस पक्ष में अनुमान से बाधा आती है- गो शब्द अनेकों हैं, क्योंकि एक ही पुरुष द्वारा एक काल में विभिन्न देश तथा स्वभाव से उपलब्ध होते हैं, जैसे घट आदि पदार्थ विभिन्न देशों में विभिन्न स्वभावों में उपलब्ध होते हैं तो उन्हें अनेक मानते हैं। अनेक देश तथा स्वभावों से उपलब्ध होना रूप जो हेतु है वह जानने वाले अनेक व्यक्तियों द्वारा विभिन्न देशों में उपलब्ध होने वाले सूर्य से अनैकान्तिक नहीं होता है, तथा काल भेद से भिन्न देशों में उपलब्ध होने वाले देवदत्त के साथ भी अनैकान्तिक नहीं होता है। इन्हीं दो व्यभिचारों को दूर करने के लिये एक पुरुष द्वारा, और एक समय में इस प्रकार के दो विशेषण हेतु में जोड़ दिये हैं। तथा ये दो विशेषण होते हुए भी दर्शन और स्पर्शन की अपेक्षा भेद स्वभाव रूप से उपलब्ध होने वाले घटादि के साथ हेतु व्यभिचरित होता था अतः "भिन्न देशतया" यह तीसरा विशेषण ग्रहण किया है । इस हेतु में कोई शंका उपस्थित नहीं करना कि अनेक जल पात्रों में संक्रामित हुए सूर्य के प्रतिबिम्ब के साथ व्यभिचार ग्राता है, क्योंकि इन प्रतिबिम्बों के विषय में आगे सिद्ध करने वाले हैं कि वे जल पात्रों में स्थित प्रतिबिम्ब अनेक हैं। इस प्रकार निर्दोष हेतु से शब्द में अनित्यपना तथा अव्यापकपना सिद्ध हो जाता है, तो भी आप मीमांसक पक्ष व्यामोह के कारण शब्द में सर्वगतत्व आदि धर्म मानते हैं तो घट पट. ग्रादि पदार्थों में भी सर्वगतत्व आदि धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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