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________________ ४७० प्रमेयकमलमार्तण्डे अदृष्टसंगतत्वेन सर्वेषां तुल्यता यदा। अर्थवान्पूर्वदृष्टश्चेत्तस्य तावान्क्षणः कुतः ।।३।। द्विस्तावानुपलब्धो हि अर्थवान्सम्प्रतीयते ।” [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २४८-२५० ] इत्यादि; तदप्यसारम्; अनुमानवातॊच्छेदप्रसंगात् । धूमादिलिंगात्पूर्वोपलब्धधूमादिसादृश्यतोग्न्यादिसाध्यप्रतिपत्तावप्यस्य सर्वस्य समानत्वात् । एतेनैवमपि प्रत्युक्तम् "शब्दं तावदनुच्चार्य सम्बन्धकरणं कुतः। न चोच्चारितनष्टस्य सम्बन्धेन प्रयोजनम् ॥" [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २५६ ] इत्यादि । यतोऽदृष्टे धूमे सम्बन्धो न शक्यते कर्तुम् । नापि दृष्टनष्टस्यास्य सम्बन्धेन प्रयोजनं किञ्चित् । शब्द तो सभी समान हैं कोई संकेत संबंध की जरूरत तो नहीं रही ? यदि कहा जाय कि जिसमें पहले संकेत हुआ है वह शब्द अर्थ प्रतीति कराता है, तो प्रश्न होता है कि शब्द का उतने क्षण तक स्थिर रहना कैसे हुआ ? कम से कम दो बार वही शब्द उपलब्ध हो तब जाकर संकेत होना और अर्थ प्रतीति करना शक्य है ॥१॥२।। इत्यादि, सो यह कथन बेकार है। इस तरह तो अनुमान की बात ही खतम हो जायगी ? इसी का खुलासा करते हैं- पहले रसोई घर में धूम को देखा फिर उसके समान पर्वत पर धूम देखा उस सदृश धूम द्वारा अग्निका ज्ञान होता हुआ देखा जाता है वह नहीं हो सकेगा ? वहां भी कह सकेंगे कि रसोई घर में जो धूम देखा था वह तो पर्वत पर नहीं है अतः उससे अग्निका अनुमान ज्ञान नहीं हो सकता इत्यादि । मीमांसक ने और भी कहा है कि- शब्द का उच्चारण जब तक नहीं करते तब तक उसका वाच्यार्थ के साथ सम्बन्ध कैसे जोड़े ? और उच्चारण कर भी लेवे तो वह उच्चारण करते ही नष्ट हो जाता है तब उसका सम्बन्ध जोड़ने से लाभ ही क्या हुमा ? कुछ भी नहीं ।।१।। इस कथन के प्रत्युत्तर में हम जैन कहेंगे कि धूम को बिना देखे तो उसका अग्नि के साथ जो सम्बन्ध है उसको जान नहीं सकते और धूम जब तक देख लेते हैं तब तक वह खतम हो ही जाता है तब उसका अग्निसे सम्बन्ध जोड़ना ही व्यर्थ है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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