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________________ ४६८ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रतीतिः कर्त्तव्ये ति नियमोस्ति, महानसदृष्टधूमसदृशादपि पर्वतधूमादग्निप्रतिपत्त्युपलम्भात् । न हि महानसप्रदेशोपलब्धैव धूमव्यक्तिरन्यत्राप्यग्नि गमयति; सदृशपरिगामाक्रान्त व्यक्त्यन्तरस्य तद्गमकत्वप्रतीतेः, अन्यथा सर्वस्य सर्वगतत्वानुषंगः । सदृशपरिणामप्रधानतया च साध्यसाधनयोः सम्बन्धावधारणम् । न ह्यनाश्रितसमानपरिणतीनां निखिलधूमादिव्यक्तीनां स्वसाध्येनाऽग्दिशा सम्बन्ध: शक्यो ग्रहीतुम्; असाधारणरूपेण तस्य तासामप्रतिभासनात्, अथ धूमसामान्य मेवाग्निप्रतिपत्तिकारणम्; न; व्यक्तिसादृश्यव्य तिरेकेण तदसम्भवात् । न च 'धुमत्वान्मया प्रतिपन्नोग्निः' इति प्रतिपत्तिः, किन्तु धूमात् । सा च सामान्य विशिष्टव्यक्तिमात्रयोः सम्बन्धग्रहणे घटते। न तु धूमाग्निसामान्ययोरवश्यं पर अग्नि को सिद्ध करता हो ? वहां तो महानस के समान परिणाम वाला अन्य कोई दूसरा ही धूम विशेष है वही साध्य का गमक होता है । अन्यथा सभी वस्तु सर्वगत व्यापक बैठेगी ? अर्थात् महानस का धूम ही पर्वत पर है उसके सदृश अन्य नहीं हैं ऐसा कहा जाय तो उसका मतलब धूम सर्वत्र व्यापक एक है ? इस तरह तो घट पट आदि सभी विषय में कहेंगे कि यह वही है इत्यादि फिर सभी पदार्थ सर्वगत ही कहलायेंगे ? साध्य साधन के संबंध को जानने के लिये सदृश परिणाम ही प्रधानता से कारण होता है। यदि धूम आदि पदार्थ समान परिणाम से रहित हैं तो अल्पज्ञानी पुरुष अग्निरूप स्वसाध्य के साथ उनका जो अविनाभाव संबंध है उसको जान नहीं सकते, क्योंकि अल्पज्ञानो को उन धूमादि निखिल पदार्थोका असाधारण रूप से प्रतिभास नहीं होता है। मीमांसक-सामान्य धूम ही अग्नि का ज्ञान करा देता है ? जैन- विशेष धूम में पाया जाने वाला जो सादृश्य है वही सामान्य धम कहलाता है, उससे अन्य तो कुछ है नहीं, अर्थात् महानस पर्वत श्रादि स्थान विशेष के धूमों में जो समानता पायी जाती है वही धूम सामान्य है अन्य कोई व्यापक, एक, नित्य ऐसा धूम सामान्य नहीं होता है । तथा जब कोई पुरुष पर्वत पर धूम देखकर अग्नि का ज्ञान कर लेता है तब मैंने धूमत्व सामान्य से अग्नि को जाना ऐसा प्रति भास नहीं होता किन्तु “धूम से अग्नि जानी' ऐसा ही प्रतीत होता है । यह प्रति भास धूम और अग्नि में जो सामान्य परिणाम से युक्त व्यक्ति स्वरूप रहता है उसका संबंध जानने पर ही हो सकता है । तथा धूम सामान्य और अग्नि सामान्य में जो अनुमापक और अनुमेयत्व रहता है उन धूम अग्नि में अवश्य सामान्य से युक्त विशेष रूपता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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