SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 498
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वेदापौरुषेयत्ववादः ४५३ कारणान्वयव्य तिरेकानुविधायित्वात्तद्वदेव । न चेदमप्यसिद्धम्; ताल्वादिकारणव्यापारे सत्येव शब्दस्यात्मलाभप्रतोतेस्तदभावे वाऽप्रतीतेः, चक्रादिव्यापारसद्भावासद्भावयोर्घटस्यात्मलाभालाभप्रतीतिवत् । अनुमानसे शब्दमें अनित्यपना सिद्ध होनेपर वर्ण आदिका अनित्यपना स्वतः ही सिद्ध होता है । यह कृतकत्व हेतु प्रसिद्ध दोष युक्त भी नहीं है, इसीको बताते हैं-शब्द किया हुआ है क्योंकि उसका कारणके साथ अन्वय व्यतिरेक है । जैसे घट का मिट्टीरूप कारण के साथ अन्वय व्यतिरेक है । शब्दका कारणके साथ अन्वय व्यतिरेक होना असिद्ध भी नहीं है तालु ओठ कंठ आदि कारणोंका जब व्यापार होता है तभी शब्द उत्पन्न होता है अन्यथा नहीं ऐसी ही सभीको प्रतीति पा रही है । जैसे कि चक्र चीवर मिट्टी आदि कारणोंका अन्वय ( सद्भाव ) हो तो घट बनता है और वे कारण न होवे तो नहीं बनता। इसतरह वेदके पद एवं वाक्य पौरुषेय ( पुरुष द्वारा रचित ) सिद्ध होते है तथा साथ ही अनित्य भी सिद्ध होते हैं क्योंकि जो पौरुषेय है वह अवश्य ही अनित्य होगा। मीमांसक अादि परवादी वेद वाक्यके समान प्रकार अादि संपूर्ण वर्णमालाको भी नित्य अपौरुषेय मानते हैं, इस मान्यताका निरसन भी वेदके अपौरुषेयत्वका खंडन होनेसे हो जाता है क्योंकि यह मान्यता प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणोंसे बाधित है, कोई भी पद वाक्य या शब्द मात्र ही प्रयत्नके बिना उत्पन्न होता है या अनादिका हो ऐसा अनुभव में नहीं आता है, अनुभवके आधार पर वस्तु व्यवस्था हुअा करती है यदि उसमें किसी प्रमाणसे बाधा नहीं पाती है तो शब्द वर्ण आदि जब तालु आदिसे उत्पन्न होते हुए दिखायी दे रहे हैं तब बुद्धिमानोंका कर्त्तव्य होता है कि वे उन्हें पौरुषेय स्वीकार करें । अस्तु । विशेषार्थ - मीमांसक प्रादि वैदिक दार्शनिक ऋग्वेद आदि चारों वेदोंको अपौरुषेय एवं सर्वथा नित्य स्वीकार करते हैं, इनका कहना है कि वेदमें धर्म अधर्म आदि अदृश्य पदार्थोंका व्याख्यान पाया जाता है इन अदृश्य पदार्थोंका साक्षात्कार किसी भी प्राणीको चाहे वह मनुष्य हो या देवता हो या अन्य कोई हो, हो नहीं सकता, इसका भी कारण यह है कि अतीन्द्रिय ज्ञानी सर्वज्ञका अस्तित्व नहीं है न था और न आगामी कालमें होगा । बस यही कारण है कि सूक्ष्मतत्वका प्रतिपादन करनेवाला वेद अपौरुषेय होना चाहिए। किन्तु विचार करने पर यह बात घटित नहीं होती, जब वेदके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy