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________________ वेदापौरुषेयत्ववादा ४५१ विशेषो दोषवन्तमप्रामाण्यकारणं पुरुषं निराकरोति न गुणवन्तमप्रामाण्य निवर्त्तकम् । न च गुणवतः पुरुपस्याभावादन्यस्य चानेन विशेषेण निराकृतत्वात्सिद्धमेवापौरुषेयत्वं तत्रेत्यभ्युपगन्तव्यम्; तत्सद्भावस्य प्राक्प्रतिपादितत्वात् । तदभावेऽप्रामाण्याभावलक्षणविशेषाभावप्रसंगाच्च । पौरुषेये प्रासादादौ हेतोर्दर्शनादपौरुषेये चाकाशादावऽदर्शनान्नानैकान्तिकत्वम् । अत एव न विरुद्धत्वम्; पक्षधर्मत्वे हि सति विपक्षे वृत्तिर्यस्य स विरुद्धः, न चास्य विपक्षे वृत्तिः। नापि कालात्ययापदिष्टत्वम्; तद्धि हेतोः प्रत्यक्षागमबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्त भवतेष्यते । न च यत्र स्वसाध्या वे लौकिक शब्दसे अविशिष्ट (समान) है किन्तु सर्वथा अविशिष्ट नहीं है, कोई वस्तु सर्वथा समान नहीं हुआ करती। आपने वैदिक शब्दोंमें अप्रामाण्याभाव नामका जो विशेष बतलाया वह विशेष तो मात्र अप्रामाण्यका कारण जो दोष युक्त पुरुष है उसीका निराकरण करता है, जो पुरुष गुणवान है अप्रामाण्यको हटानेवाला है उस पुरुषका निराकरण नहीं करता है। आप कहो कि गुणवान पुरुषका तो अभाव है और दोष युक्त पुरुषका निराकरण अप्रामाण्याभाव विशेषसे हो जाता है, अतः अपने आप ही वैदिक शब्द अपौरुषेय सिद्ध हो जाते हैं ? सो यह कथन भी असत है गुणवान पुरुषका सद्भाव है इस बातको अभी अभी सर्वज्ञसिद्धि प्रकरणमें निश्चित कर आये हैं। तथा यह भी निश्चित है कि यदि आप मीमांसक गुणवान पुरुषको नहीं मानते तो अप्रामाण्य का अभावरूप विशेष भी सिद्ध नहीं हो सकेगा उसका भी अभाव होने का प्रसंग आता है। "वैदिक शब्द पौरुषेय हैं ( पुरुषने बनाये हैं ) क्योंकि वे मनुष्य रचित शब्दों के समान रचनावाले ही देखे जाते हैं" यह हम जैनका अनुमान प्रमाण वेदके अपौरुषेयत्वका निराकरण करनेके लिये प्रयुक्त हुपा है, इस अनुमानका मनुष्य रचित वचन रचना अविशिष्टत्व नामक हेतु अनैकान्तिक भी नहीं है, क्योंकि पौरुषेय प्रासाद आदि की जो रचना है उसमें तो यह हेतु पाया जाता है और अपौरुषेयभूत अाकाशादिक है उस विपक्ष में नहीं रहता । तथा विपक्ष में नहीं जाने के कारण ही विरुद्ध दोष युक्त भी नहीं है, इसीको बतलाते हैं -जिस हेतुमें पक्ष धर्मत्व होकर विपक्षमें वृत्ति पायी जाय वह विरुद्ध हेतु कहलाता है, किन्तु प्रस्तुत हेतु विपक्षमें नहीं रहता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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