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________________ ४४८ प्रमेयकमलमार्तण्डे ब्रह्मणोपि वेदार्थज्ञाने सिद्ध सत्यऽतो मन्वादेस्तदर्थपरिज्ञानातिशयः स्यात् । तच्चास्य कुतः सिद्धम् ? धर्मविशेषाच्चेत्; स एवेतरेतराश्रयः-वेदार्थपरिज्ञानाभावे हि तत्पूर्वकानुष्ठानजनितधर्म विशेषानुत्पत्तिः, तदनुत्पत्ती च वेदार्थपरिज्ञानाभाव इति । तन्नातीन्द्रियार्थदर्शिनोऽनभ्युपगमे वेदार्थप्रतिपत्तिर्घटते । __ ननु व्याकरणाद्यभ्यासाल्लौकिकपदवाक्यार्थप्रतिपत्तौ तदविशिष्टवैदिकपदवाक्यार्थप्रतिपत्तिरपि प्रसिद्ध रश्र तकाव्यादिवत्, तन्न वेदार्थप्रतिपत्तावऽतीन्द्रियार्थदर्शिना किंचित्प्रयोजनम्; इत्यप्यसारम्; लौकिकवैदिकपदानामेकत्वेप्यनेकार्थत्वव्यवस्थितेः अन्यपरिहारेण व्याचिख्यासितार्थस्य नियमयितुशक्तेः । न च प्रकरणादिभ्यस्तन्नियमः; तेषामप्यनेकप्रवृत्तेद्विसन्धानादिवत् । यदि च लौकिकेनाग्न्या होनेपर वेदार्थ ज्ञानका अतिशय सिद्ध होगा। ब्रह्माजीसे वेदार्थको जाना है ऐसा कहो तो ब्रह्माको वेदार्थका ज्ञान है यह पहले सिद्ध होना चाहिये तब जाकर उसके ज्ञानका अतिशय सिद्ध हो सकेगा। ब्रह्माको वेदार्थका ज्ञान किससे हुया ? धर्म विशेषसे हुआ कहो तो पहलेके समान अन्योन्याश्रय होता है-वेदार्थके परिज्ञानका जबतक अभाव है तबतक उस परिज्ञानपूर्वक होनेवाले अनुष्ठान विशेषसे धर्म विशेष उत्पन्न नहीं हो सकेगा, और धर्म विशेष के अभावमें वेदार्थके परिज्ञानका अभाव रहेगा। इसलिये अतीन्द्रिय ज्ञानीको नहीं माननेसे वेदार्थका ज्ञान होना भी घटित नहीं होता है । मीमांसक-व्याकरण आदिका अभ्यास करनेसे जैसे लौकिक पद एवं वाक्योंके अर्थकी प्रतिपत्ति हो जाया करती है वैसे ही लौकिक पदादिके सदृश होनेवाले जो वैदिक पद वाक्य हैं उनके अर्थकी प्रतिपत्ति भी सिद्ध होवेगी, जिस तरह की अश्रुतपूर्व काव्य अादिके वाक्योंका अर्थाभ्यास होता हुआ देखा जाता है ? इसलिये वेदार्थको जाननेके लिये अतीन्द्रिय ज्ञानीकी जरूरत होवे सो बात नहीं है । जैन-यह कथन असार है, लौकिक पद और वैदिक पद सदृश होते हुए भी अर्थ विभिन्न है अतः अन्य अर्थका परिहार करके यही अर्थ सही है ऐसा अर्थका नियम निश्चित करना अशक्य है, अर्थात् एक एक पद एवं वाक्यके अनेक अनेक अर्थ हुना करते हैं उन अनेक अर्थों में से यहां पर यही अर्थ ग्रहण किया जायगा ऐसा निर्णय होना अशक्य है, यदि कहा जाय कि प्रकरणके अनुसार अर्थका निर्णय हो जाता है सो भी बात नहीं है प्रकरण भी अनेक हुग्रा करते हैं जैसे द्विसंधानकाव्य आदिमें एक एक प्रकरणके अनेक अर्थ होते हैं । तथा यदि आप मीमांसक लौकिक अग्नि आदि शब्दके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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