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________________ ४३४ प्रमेयकमलमात्तं ण्डे "वेदस्याध्ययनं सर्व गुर्वध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा" [ मी० श्लो० अ०७ श्लो० ३५५ ] इत्यनेवानुमानेन पौरुषेयत्वप्रसाधकानुमानस्य बाधा; इत्यपि प्रत्याख्यातम्; प्रकृतदोषाणामत्राप्यविशेषात् । किंच, अत्र निविशेषणमध्ययनशब्दवाच्यत्वमपौरुषेयत्वं प्रतिपादयेत्, कर्बऽस्मरणविशिष्ट वा? निविशेषणस्य हेतुत्वे निश्चितकत केषु भारतादिष्वपि भावादनैकान्तिकत्वम् । व्यर्थ है, क्योंकि जिस दोषके कारण तुल्य बल नहीं है उसी दोषसे एक अनुमान अप्रामाणिक सिद्ध होगा। पौरुषेयसाध्यवाले अनुमान का विषय बाधित किया जाता है ऐसा दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं, क्योकि तुल्य बलशाली हेतुअोंमें (पदवाक्यत्व रूप हेतु और अस्मर्यमाणकर्तृत्वरूप हेतु में ) परस्परके विषयोंको प्रतिबंध करानेकी सामर्थ्य समानरूपसे होनेके कारण बिचारा वेद दोनों धर्मोंसे (पौरुषेय और अपौरुषेयसे) शून्य हो जायेगा । अथवा उक्त दोनों अनुमानोंमेंसे एक अनुमानने अपने विषयको सिद्ध किया तो दूसरा अनुमान भी अपने विषयको सिद्ध करेगा और इस तरह वेद दो धर्मात्मक ( पौरुषेय धर्म और अपौरुषेय धर्म ) हो जायेगा। और यदि उक्त दोनों अनुमानोंमें अतुल्यबल है (समान बल नहीं है) तो फिर जिस कारणसे समानबल नहीं है उसी कारणसे एक अनुमान अप्रामाणिक सिद्ध हो जाता है इसलिये फिरसे उसमें प्रसंग साधनरूप अनुमान द्वारा बाधा उपस्थित करनेसे क्या प्रयोजन रहता है ? कुछ भी नहीं। __ मीमांसकका दूसरा अनुमान प्रयोग है कि-वेदका जो भी अध्ययन होता है वह सब गुरु अध्ययन पूर्वक होता है क्योंकि वह वेदाध्ययनरूप है जैसे वर्तमानकालका वेदका अध्ययन गुरुसे होता है । सो इस अनुमान द्वारा हमारे पौरुषेय प्रसाधक अनुमान में बाधा देना भी असंभव है, क्योंकि इसमें वे ही पूर्वोक्त दोष पाते हैं कोई विशेषता नहीं है। ___ तथा इस अनुमानका वेदाध्ययन वाच्यत्वहेतु विशेषण रहित होकर ही अपौरुषेयत्व साध्यको सिद्ध करता है अथवा "कर्ताका अस्मरणरूप' विशेषण सहित होकर अपौरुषेय साध्यको सिद्ध करता है ? प्रथम विकल्प माने तो भारत आदि निश्चित कर्तावाले ग्रथोंमें भी उक्त हेतु चला जानेसे अनेकान्तिक होता है । अर्थात् महाभारत आदि पौरुषेय ग्रथोंका अध्ययन भी गुरु अध्ययन पूर्वक होता है अतः ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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