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________________ ४३२ प्रमेयकमलमार्तण्डे भिधीयते तथा पदवाक्यत्वलक्षणहेतुसद्भावे सत्यस्मर्यमाणकर्तृ कत्वस्याप्यप्रवृत्तिरस्तु विशेषाभावात् । तन्न स्वतन्त्रसाधन मिदम् । नापि प्रसङ्गसाधनम्; तत्खलु 'पौरुषेयत्वाभ्युपगमे वेदस्य तत्करी : पुरुषस्य स्मरणप्रसङ्गः स्यात्' । इत्यनिष्टापादनस्वभावम् । न च कर्तृ स्मरणं परस्यानिष्टम्; स हि पदवाक्यत्वेन हेतुना तत्कर्ता: स्मरणं प्रतीयन् कथं तत्स्मरणस्याऽनिष्टतां ब्रूयात् ? । पौरुषेयत्वसाधनानुमानबाधापक्षेपि किमनेनास्य स्वरूपं बाध्यते. विषयो वा ? न तावत्स्वरूपम्; अपौरुषेयत्वानुमानस्याप्यनेन स्वरूपबाधनानुषङ्गात्, तयोस्तुल्यबलत्वेनान्योन्यं विशेषाभावात् । उसीप्रकार पद वाक्यत्वनामा हेतुके रहने पर उसका प्रतिहेतु अस्मर्यमाण कर्तृत्व प्रवृत्ति नहीं करता ऐसा भी कह सकते हैं, दोनों कथनोंमें या हेतुओंमें कोई विशेषता तो है नहीं। इसलिये अस्मर्यमाणकर्तृत्व हेतु स्वतन्त्रतासे प्रयुक्त हुआ है ऐसा कहना प्रसिद्ध है। इस हेतुको प्रसंग साधनरूपसे प्रयुक्त किया है ऐसा कहना भी गलत है, प्रसंग साधन तो तब बनता जब वेदको पौरुषेय मानकर कर्ताका स्मरण होना नहीं मानते, ऐसे समय पर अनिष्टका आपादन हो सकता था कि जैनादि परवादी यदि वेदको पौरुषेय स्वीकार करते हैं तो उन्हें कर्त्ताका स्मरण भी अवश्य मानना होगा। इत्यादि, किन्तु जैनादिके लिये कर्त्ताका स्मरण मानना अनिष्ट नहीं है वे तो पदवाक्यत्व हेतु द्वारा वेदकर्ताका स्मरण सिद्ध करते ही हैं अर्थात् वेदमें पद एवं वाक्योंकी रचना दिखायी देती है अतः वह अवश्यमेव पुरुष द्वारा रचित पौरुषेय है। इसप्रकार वेद कर्ताका स्मरण मानना इष्ट ही है फिर वह अनिष्ट कैसे होगा ? विशेषार्थ- "परेष्टयाऽनिष्टापादनं प्रसंग साधनम्" परवादोके इष्टको लेकर उससे उनका अनिष्ट सिद्ध करके बताना प्रसंग साधन हेतु कहलाता है। वाद विवाद करते समय सामनेवाले व्यक्ति द्वारा स्वसिद्धांतको सिद्ध करनेके लिये अनुमानका प्रयोग किया जाता है, अनुमानमें सबसे अधिक महत्वशाली हेतु हुआ करता है, उस हेतुमें असिद्ध विरुद्ध प्रादि दोष तो होने ही नहीं चाहिये किन्तु ऐसा भी हेतु नहीं होना चाहिए कि जिस हेतुको लेकर परवादी हमारे अनिष्टको सिद्ध करके दिखावे । अनुमानके प्रमुख दो अवयव होते हैं साध्य और साधन, इसीको पक्ष और हेतु कहते हैं, प्रतिज्ञा और हेतु इस तरह भी कहा जाता है। साध्य और साधन दोनों अवयव ऐसे होने चाहिए कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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