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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे धारणकारणस्यैव निरूपयितुमभिप्रेतत्वात् । सन्निकर्षस्य चाऽव्यापकत्वादसाधकतमत्वाच्चानभि. धानम् । अर्थालोकयोस्तदसाधारणकारणत्वादत्राभिधानं तहि कर्तव्यम् ; इत्यप्यसत्; तयोर्ज्ञानकारणत्वस्यवासिद्ध: । तदाह - नार्थाऽऽलोको कारणं परिच्छेद्यत्वाचमोवत् ।।६।। शंकाः-जो ज्ञान इन्द्रिय तथा मनके निमित्तसे होता है उसको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं ऐसा जैनाचार्यने प्रत्यक्ष प्रमाणका लक्षण किया है किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रमाणमें आत्मा भी निमित्त होता है तथा पदार्थ एवं प्रकाश भी निमित्त होते हैं, अतः इन सब कारणोंका उल्लेख करना आवश्यक है ? समाधान-यह शंका ठीक नहीं है, सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके लक्षणमें जो असाधारण कारण है उसोको बतलाना इष्ट है, आत्मा या समनंतर प्रत्यय रूप जो अन्य कारण है वह तो परोक्ष प्रमाण में भी पाया जाता है, सन्निकर्ष इसलिये प्रमाणके लक्षणमें नहीं आता है कि वह अव्यापक है, अर्थात् चक्षु द्वारा सन्निकर्षज ज्ञान नहीं होता, तथा सन्निकर्ष साधकतम भो नहीं है अतः सन्निकर्ष प्रमाणका निमित्त नहीं हो सकता। भावार्थ-सांव्यवहारिक प्रत्यक्षका साधकतम कारण इन्द्रिय और मन ही हो सकता है अन्य कोई साधकतम कारण नहीं हो सकते, क्योंकि यदि आत्माको कारण मानते हैं तो वह प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनोंमें कारण है न कि अकेले प्रत्यक्षमें अतः असाधारण कारणमें (साधकतममें) वह नहीं आता, तथा सन्निकर्ष भी प्रमाण के प्रति साधकतम नहीं हो सकता, क्योंकि सभी इन्द्रियज ज्ञान सन्निकर्ष से नहीं होते इस विषयको पहले कह आये हैं । । अब यहां कोई कहे कि पदार्थ और प्रकाश में तो प्रमाणके प्रति असाधारण कारणपना है ? उनका प्रत्यक्षके लक्षणमें कथन होना चाहिये ? सो यह कथन गलत है क्योंकि पदार्थ और प्रकाश ज्ञानके कारण नहीं हो सकते, आगे इसी विषयका विवेचन करनेवाला सूत्र कहते हैं नार्थालोको कारणं परिच्छेद्यत्वातू तमोवत् ।।६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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