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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
'पुरुषवत्' इत्यादेर्गमकत्वं स्यात् केवलान्वयस्यात्र सुलभत्वात् । ननु सर्वं न सत्त्वादिकं क्षणिकत्वादिना व्याप्तम् ग्रात्मादौ क्षणिकत्त्वाद्यसत्त्वात् तन्न तदसत्त्वे तत्रार्थक्रियाऽसत्त्वात् सत्त्वं न स्यात् ।
किंच, घटादिष्टान्ते सत्त्वादिकं क्षरणक्षयादौ सति दृष्टमपि यदि क्वचित्तदभावेपि स्यान्न तहि बहिर्व्याप्तिरन्वयः, लक्षरणयुक्त बाधासम्भवे तल्लक्षणमेव दूषितं स्यात् ।
अथ सकलव्याप्तिरन्वयः; ननु केयं सकलव्याप्तिः ? 'दृष्टांतधर्मिणीव साध्यधर्मिण्यन्यत्र च साध्येन साधनस्य व्याप्तिः सा' इति चेत्; सा कुतः प्रतीयताम् ? प्रत्यक्षतः, अनुमानाद्वा ? प्रत्यक्षतश्चेत्; किमिन्द्रियात्, मानसाद्वा ? न तावदिन्द्रियात्; चक्षुरादेरिन्द्रियस्य सकल साध्यसाधनार्थसन्निकर्ष वैधुर्ये तदनुपपत्त ेः । न हि तद्वै धुर्ये तद्युक्तम् " इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं
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रागादिमान होने से अल्पज्ञ है । इत्यादि अनुमानस्थ हेतु स्व स्व साध्यके गमक हो जायेंगे ? क्योंकि इनमें बहिर्व्याप्तिवाला केवलान्वय मौजूद है ?
योग - सभी सत्त्वादिरूप पदार्थ क्षणिकत्वके साथ व्याप्त नहीं हैं, कहीं क्षणिक बिना भी सत्त्वादिरूप पदार्थ सिद्ध है अर्थात् घट ग्रादिकी क्षणिकत्वके साथ व्याप्ति होनेपर भी श्रात्मादिकी तो नहीं होती !
जैन - ऐसा नहीं है, यदि आत्मादि पदार्थोंमें क्षणिकत्वका सर्वथा निषेध ( प्रभाव ) किया जाय तो अर्थक्रियाका प्रभाव होनेसे उनका अस्तित्व ही समाप्त होवेगा ।
तथा घटादि दृष्टांतभूत पदार्थों में सत्त्वादि हेतु क्षणक्षयादिके साथ रहते हुए दिखायी देने पर भी यदि कहीं क्षणक्षयके प्रभाव में भी सत्त्वादि पाया जाय तो बहिर्व्याप्तिरूप अन्वय का लक्षण घटित नहीं होगा, क्योंकि लक्षणयुक्त वस्तु में ( हेतु में) यदि बांधा संभावित है तो उसका मतलब लक्षण ही दूषित है ।
अन्वय सकलव्याप्तिरूप होता है ऐसा दूसरा पक्ष स्वीकार करे तो प्रश्न होता है कि सकलव्याप्ति किसे कहते हैं ?
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योग - दृष्टांतभूत धर्मीके समान साध्यधर्मी में और ग्रन्यत्र भी साध्य के साथ साधन की व्याप्ति घटित होना सकल व्याप्ति कहलाती है ।
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जैन- - अच्छा तो यह व्याप्ति किस प्रमाणसे प्रतीत होती हैं प्रत्यक्षसे या • अनुमानसे ? प्रत्यक्षसे कहो तो इन्द्रियप्रत्यक्ष से अथवा मानसप्रत्यक्ष से, इन्द्रिय प्रत्यक्ष से
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