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________________ ३५२ प्रमेयकमलमार्तण्डे किंच, यद्यभावोऽत्र पक्षसपक्षाभ्यां बहिर्भूतः; तमु नेनानेकत्वादित्यनैकान्तिको हेतुः, तदनेकत्वेपि कस्यचिदेकज्ञानावलम्बनत्वानभ्युपगमात् । अभ्युपगमे वा कथमभावो न पक्षः ? तथा विपक्षोप्यस्तु । नन्वेवं विपक्षाभावोपि तदालम्बन मिति पक्ष एव स्यात्, तथा च पुनरपि विपक्षाभाव एव इति चेत्; तर्हि पुनरपि तदेव चोद्यम्- 'कोयं विपक्षाभाव इति ? यदि पक्षसपक्षावेव; भावाद्भिन्नस्याभावस्याभावः। अथ तुच्छा विपक्षनिवृत्तिस्तदभावः सोपि यद्यप्रतिपन्नस्तहि सन्दिग्धः । तत्सन्देहे च व्यतिरेकाभावोपि तागेवेति न निश्चितः केवलान्वयः' इत्यादि तदवस्थं पुनः पुनरावर्त्तते इति चक्रकप्रसंगः। समावेश कैसे नहीं हुआ ? अवश्य हुआ । तथा प्रभाव पक्षांतर्गत है तो जो तुच्छाभावरूप अभाव है वह विपक्ष है ऐसा भी स्वीकार करना होगा। यौगयदि तूच्छाभावरूप अभावको विपक्ष माना जाय तो विपक्षाभाव भी पूर्वोक्त ज्ञानका आलंबन होनेसे पक्षांतर्गत होगा और ऐसा होनेसे उक्त अनुमानमें विपक्षका अभाव फिर भी होगा ही ? जैन-ऐसी बात है तो पुनः वही प्रश्नावली उपस्थित होगी कि यह विपक्षाभाव कौन है ? यदि पक्ष और सपक्षको ही विपक्षाभाव कहते हैं तो भावांतर स्वभाववाला अभाव है ऐसा निर्णय होनेसे 'अभाव सर्वथा सद्भावसे भिन्न ही है' ऐसा सिद्धांत (योगका) विघटित हो जाता है । यौग-विपक्षकी निवृत्ति तुच्छ है उसीको विपक्ष का अभाव कहते हैं ? जैन-यह विपक्षका अभाव भी यदि अज्ञात है तो संदेह की कोटिमें जाता है और उसके संदिग्ध रहनेपर व्यतिरेकका अभाव भी उसी जातिका ठहरता है, व्यतिरेकाभाव के अनिश्चयमें केवलान्वय भी निश्चित नहीं होता इस तरह वही वही प्रश्नका चक्कर उपस्थित होनेसे नथ चक्रक अर्थात् वही बात घूमकर बार बार पाना रूप दोष आता है । अतः केवलान्वयीरूपसे स्वीकार किये हुए अनुमानमें विपक्षाभाव ही तुच्छ विपक्ष है ऐसा सिद्ध होता है, जब विपक्ष ऐसा है तो साध्य निवृत्तिसे साधन की निवृत्ति होना सिद्ध ही है फिर उक्त अनुमानमें व्यतिरेक सद्भाव किस प्रकार नहीं है ? है ही । इसीलिये अविनाभावका एवं उसके परिज्ञानका प्राणादिमत्व आदि व्यतिरेकी हेतु वाले अनुमानमें सद्भाव सिद्ध होता है, फिर आपके केवलान्वयी अनुमानसे क्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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