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________________ हेतोः पाञ्चरूप्यखण्डनम् ३४३ कञ्चित्, सर्वथा वा ? सर्वथा चेत्, न; सर्वथा व्यक्त्यव्यतिरिक्तस्यास्य व्यक्तिस्वरूपवद्वयक्त्यन्तराननुगमतः सामान्यरूपतानुपपत्तेः । कथञ्चित्पक्षस्त्वनभ्युपगमादेवायुक्तः । नापि व्यक्तिरूपो हेतुः; तस्यासाधारणत्वेन गमकत्वायोगात् । नाप्युभयं परस्पराननुविद्धम्; उभयदोषप्रसङ्गात् । नाप्यनुभयम्; अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकाभावे द्वितीयविधानादनुभयस्यासत्त्वेन हेतुत्वायोगात् । ततः पदार्थान्तरानुवृत्तव्यावृत्तरूपमात्मानं बिभ्रदेकमेवार्थस्वरूपं प्रतिपत्तुर्भेदाभेदप्रत्ययप्रसूतिनिबन्धनं हेतुत्वेनोपादीयमानं तथाभूतसाध्य सिद्धिनिबन्धनमभ्युपगन्तव्यम् । किंच, एकांतवाद्युपन्यस्तहेतोः किं सामान्यं साध्यम्, विशेषो वा, उभयं वा, अनुभयं वा ? न तावत्सामान्यम्; केवलस्यास्यासम्भवादर्थक्रियाकारित्वविकलत्वाच्च । नापि विशेषः, तस्याननुयायितया एवं एक मानते हैं, ऐसे ही मनुष्य घट पट आदि यावन्मात्र पदार्थों में घटित करना] अभिन्न सामान्य व्यक्तिके स्वरूप समान अन्य व्यक्तिमें गमन नहीं कर सकनेसे उस सामान्यकी सामान्यरूपता समाप्त हो जाती है। कथंचित् अभिन्न कहनेका पक्ष तो अस्वीकृत होनेके कारण प्रयुक्त है । हेतु व्यक्तिरूप अर्थात् विशेषरूप होता है ऐसा पक्ष भी ठीक नहीं, क्योंकि व्यक्तिरूप हेतु असाधारण होनेके कारण साध्यका गमक नहीं हो सकता। उभयरूप हेतुको मानना भी गलत है, क्योंकि आपके यहां सामान्य और विशेष परस्परमें असंबद्ध है अतः उभयदोष-दोनों-सामान्य विशेष पक्षके दोषोंका प्रसंग आता है। हेतुको अनुभयरूप स्वीकार करनेका चौथा विकल्प भी नहीं बनता जो एक दूसरे का व्यवच्छेद करके रहनेवाले धर्म हैं उनका एकका अभावमें दूसरेका विधान अवश्य होता जाता है, अतः अनुभय [सामान्य भी नहीं और विशेष भी नहीं] रूप धर्मका असत्त्व हो है इसलिये उसमें हेतुपना नहीं हो सकता। अतः ऐसा स्वीकार करना चाहिये कि जो अन्य पदार्थोंसे अनुवृत्त तथा व्यावृत्तस्वरूप अपनेको धार . रहा है तथा ज्ञातापुरुषके भेद और अभेद ज्ञानोत्पत्तिका निमित्त है उसको हेतु बनाने पर हो तथाभूत साध्यकी सिद्धि हो सकतो है, अर्थात् जिस हेतुमें अनुवृत्त व्यावृत्त स्वरूप सामान्य विशेष रूप अनेकात्मक हो वही स्वसाध्यकी सिद्धि करता है। किंच, एकांतपक्षवाले परवादी द्वारा उपस्थित किये गये हेतुका माध्य भी किस प्रकार का होगा, सामान्य या विशेष, उभय या अनुभय ? केवल सामान्यरूप साध्यका होना अशक्य है क्योंकि न इसप्रकारकी वस्तु है और न ऐसे में अर्थक्रियाकारीपना संभव है। विशेषरूप वस्तुको साध्य बनाना भी ठीक नहीं, क्योंकि वह अन्यत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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