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________________ ३४० प्रमेयकमलमार्तण्डे साध्यमन्तरेणोपपत्तिमान्, तस्य तेन व्याप्तत्वाभावप्रसङ्गात् । अत एव प्रतिपन्न प्रतिबन्धैकहेतुसद्भावे मिरिण न विपरीतसाध्योपस्थापकहेत्वन्तरस्य सद्भावः, अन्यथा द्वयोरप्यनयोः स्वसाध्याविनाभावित्वात्, नित्यत्वानित्यत्वयोश्चैकत्रैकदैकान्तवादिमते विरोधतोऽसंभवात्, तद्वयवस्थापकहेत्वोरप्यसंभवः । सम्भवे वा तयोः स्वसाध्याविनाभूतत्वान्नित्यत्वानित्यत्वधर्म सिद्धिर्धर्मिणः स्यादिति कुतः प्रकरणसमस्यागमकता एकांतत्व सिद्धिर्वा ? अथान्यतरस्यात्र स्वसाध्याविनाभाववैकल्यम्; तथाप्यत एवास्या: गमकतेति किं तत्प्रतिपादनप्रयासेन ? । किञ्च, नित्यधर्मानुपलब्धिः प्रसज्यप्रतिषेधरूपा, पर्युदासरूपा वा शब्दानित्यत्वे हैतुः स्यात् ? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः; तुच्छाभावस्य साध्यासाधकत्वान्निषिद्धत्वाच्च । द्वितीयपक्षे तु अनित्यधर्मोप उसका साध्यके साथ अविनाभाव संबंध नहीं रहने का प्रसंग पाता है। इसीलिये ज्ञात है साध्याविनाभावित्व जिसका ऐसे एक हेतुके सद्भावयुक्त धर्मीमें विपरीत साध्यका उपस्थापक अन्य हेतु पा नहीं सकता अन्यथा दोनों हेतु स्व-स्वसाध्यके अविनाभावी होंगे और अविनाभावी होने के कारण अपना अपना साध्य-नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म को एक जगह एक ही कालमें सिद्ध कर बैठेंगे किन्तु वह एकांतमतमें विरुद्ध होनेसे असंभव है अतः उक्त नित्यत्वादिके व्यवस्थापक हेतुनोंका भी अभाव हो जाता है, यदि उनका सद्भाव है तो अपने अपने साध्यके अविनाभावी होनेसे धर्मीमें नित्य और अनित्य धर्मकी सिद्धि करेंगे ही फिर 'प्रकरणसम हेतु अगमक होता है' ऐसा कहना किस प्रकार सिद्ध होगा ? और सर्वथा एकांत मतकी (शब्द अनित्य ही है इत्यादिकी) सिद्धि भी किसप्रकार होगी ? अर्थात् नहीं हो सकती। यौग - दोनों हेतुनोंमें से एकको ( अनुपलभ्यमान नित्यधर्मत्व हेतुको ) स्वसाध्य का अविनाभावी नहीं मानते ? जैन- तो फिर अविनाभावित्वके नहीं होनेके कारण ही उक्त हेतु अगमक ठहरा, प्रकरण सम ग्रादिके प्रतिपादनका प्रयास तो व्यर्थ ही है। किंच, “नित्य धर्मकी अनुपलब्धि" इस वाक्यमें अनुपलब्धि का अर्थ उपलब्धि का अभाव है सो वह प्रसज्यप्रतिषेध स्वरूप है अथवा पर्यु दास स्वरूप है दोनोंमें से किसको शब्दके अनित्यत्वको सिद्ध करने में हेतु बनाया है ? प्रसज्यप्रतिषेधरूप अनुप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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