SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१४ प्रमेयकमलमार्तण्डे नापि विसंवादित्वात्; स्वविषयेस्य संवादप्रसिद्ध :। साध्यसाधनयोरविनाभावो हि लर्कस्य विषयः, तत्र चाविसंवादकत्वं सुप्रसिद्ध मेव । कथमन्यथानुमानस्या विसंवादकत्वम् ? न खलु तर्कस्यानुमाननिबन्धनसम्बन्धे संवादाभावेऽनुमानस्यासी घटते । ___ ननु चास्य निश्चितः संवादो नास्ति विप्रकृष्टार्थविषयत्वात्; तदसत्; तर्कस्य संवादसन्देहे हि कथं निस्सन्देहानुमानोत्थानम् ? तदभावे च कथं सामस्त्येन प्रत्यक्षस्याप्रामाण्यव्यवच्छेदेन प्रामाण्यप्रसिद्धिः ? ततो निस्सन्देहमनुमान मिच्छता साध्यसाधनसम्बन्धग्राहि प्रमारणमसन्दिग्धमेवाभ्यु पगन्तव्यम् । समाधान-यह कथन असमीचीन है, प्रत्यक्ष प्रमाण संबंधग्राही नहीं होता ऐसा अभी सिद्ध कर आये हैं, तथा प्रत्यक्ष का फल होने से इस ज्ञानको अप्रमाण मानेंगे तो विशेषण ज्ञान का फल होने से विशेष्य ज्ञान को भी अप्रमाण मानना होगा। यदि कहा जाय कि हान उपादान एवं उपेक्षा बुद्धिरूप फल युक्त होने से विशेष्य ज्ञानको प्रमाण मानते हैं तो ऊहापोह ज्ञानको भी प्रमाण मानना चाहिये, क्योंकि उभयत्र कोई विशेषता नहीं है अर्थात् विशेष्य ज्ञान में हानादि बुद्धि रूप फल है तो ऊहापोह ज्ञान में भी हानादि बुद्धि रूप फल पाया जाता है। इसलिये गृहीतग्राही होने से तर्क अप्रमाण है ऐसा सिद्ध नहीं होता है । विसंवादक होने से तर्क अप्रमाण है ऐसा कहना भी असत् है तर्क ज्ञान तो अपने विषय में संवाद स्वरूप है साध्य और साधन का अविनाभाव इस तर्क ज्ञान का विषय है, और उसमें अविसंवादकपना सुप्रसिद्ध ही है। यदि ऐसा नहीं होता तो अनुमान प्रमाण में अविसंवादकपना कैसे होता ? अनुमान के निमित्तभूत तर्क ज्ञान के विषय में यदि संवादपने का अभाव है तो वह अनुमान में भी घटित नहीं हो सकता। शंका-तर्क में संवादपना पाया जाना निश्चित नहीं क्योंकि वह अति दूर देशादि में स्थित पदार्थ को विषय करता है ? समाधान-यह कथन असत् है, यदि तर्क ज्ञान में संवादपने का संदेह माना जायगा तो निःसंदेहरूप अनुमान की उत्पत्ति किस प्रकार होगी ? और इस तरह अनुमान का अभाव होने पर प्रत्यक्ष प्रमाण में अप्रामाण्य का व्यवच्छेद करके पूर्णरूपेण प्रामाण्य प्रसिद्धि कैसे संभव होगी ? अतः निःसंदेहरूप अनुमान की उत्पत्ति चाहने 'वाले को साध्य साधन के अविनाभाव संबंध को ग्रहण करने वाले ज्ञानको अवश्यमेव स्वीकार करना होगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy