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________________ तर्कस्वरूप विचारः ३११ अथास्मदादिप्रत्यक्षस्य व्याप्तिप्रतिपत्तावसामर्थ्येपि योगिप्रत्यक्षस्य तत् स्यात्; इत्यभ्यसत्; तस्याप्यविचारकतया तावतो व्यापारान् कर्त्तुं मसमर्थत्वाविशेषात् । कुतश्चास्योत्पत्तिः - विकल्पमात्राभ्यासात्, अनुमानाभ्यासाद्वा ? प्रथमपक्षे कामशोकादिज्ञानवत्तस्याप्रामाण्यप्रसङ्गः । द्वितीयपक्षेप्यन्योन्याश्रयः - व्याप्तिविषये हि योगिप्रत्यक्षे सत्यनुमानम्, तस्मिंश्च सति तदभ्यासाद्योगिप्रत्यक्षमिति । अस्तु वा योगिप्रत्यक्षम् ; तथापि तत्प्रतिपन्नार्थेष्वनुमानवैयर्थ्यम् । साध्यसाधनविशेषेषु स्पष्टं प्रतिभातेष्वपि अनुमाने सर्वत्रानुमानानुषङ्गात् स्वरूपस्याप्यध्यक्षतोऽप्रसिद्धिः । परार्थं तस्यानुमानमिति चेत्; तर्हि योगी परार्थानुमानेन गृहीतव्याप्तिकम्, अगृहीतव्यकि वा परं प्रतिपादयेत् ? गृहीतव्याप्तिकं चेत्; कुतस्तेन गृहीता व्याप्तिः ? न तावत्स्वसंवेदनेन्द्रियमनो समाधान -यह शंका असत् है, योगीजनों का प्रत्यक्ष ज्ञान निर्विकल्प होने से उतना व्यापार करने में असमर्थ ही है, तथा इस योगी प्रत्यक्ष की उत्पत्ति किससे होती है विकल्प मात्र के अभ्यास से ग्रथवा अनुमान के अभ्यास से ? प्रथम पक्ष स्वीकृत हो तो काम शोकादि ज्ञान के समान उस योगी प्रत्यक्ष को भी प्रमाणपना प्राप्त होगा । द्वितीय पक्ष कहो तो अन्योन्याश्रय होगा व्याप्ति को विषय करने वाले योगी प्रत्यक्ष होने पर अनुमान होगा और अनुमान के होने उत्पन्न होगा । कदाचित् योगी प्रत्यक्ष ज्ञान पदाथा में अनुमान की प्रवृत्ति होना व्यर्थ विशेष स्पष्ट रूपेण प्रतिभासित होने पर अनुमान से ही सिद्धि होगी फिर तो स्वयं होगा । पर उसके अभ्यास द्वारा योगी प्रत्यक्ष मान लेवे तो भी उसके द्वारा ज्ञात हए ठहरता है, यदि साध्य साधनभूत पदार्थ भी उसमें अनुमान प्रवृत्त होता है तो सर्वत्र के स्वरूप की प्रत्यक्ष से सिद्धि होना दुर्लभ शंका - योगीजन का अनुमान प्रयोग परके लिये होता है ? समाधान - तो फिर वह योगी परार्थानुमान द्वारा व्याप्ति को ग्रहण करके परको समझाता है अथवा बिना व्याप्ति को ग्रहण किये परको समझाता है ? यदि व्याप्ति को ग्रहण करके समझाता है तो उसने किस ज्ञान द्वारा व्याप्तिको ग्रहण किया है ? स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से या इन्द्रिय प्रत्यक्ष से अथवा मानसप्रत्यक्ष से व्याप्ति को ग्रहण करना तो शक्य नहीं क्योंकि व्याप्ति उन प्रत्यक्षों का विषय नहीं है । तथा योगी प्रत्यक्ष द्वारा व्याप्तिका ज्ञान होना स्वीकार करें तो अनुमान प्रमाण व्यर्थ ठहरता है ऐसा पहले ही कह दिया है । व्याप्तिको बिना ग्रहण किये योगी परको समझाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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