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प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यविचारः
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तथा स्वसमीपवत्तिप्रासादादिदर्शनोपजनित संस्कारस्य तत्प्रतियोगिभूधराद्युपलम्भात् 'इदमस्माद्दूरम्' इति प्रतिपत्तिः, ग्रामलकदर्शनाहितसंस्कारस्य बिल्वादिदर्शनात् 'श्रतस्तत्सूक्ष्मम्' इति, हस्वदर्शनाविर्भूतसंस्कारस्य तद्विपरीतार्थोपलम्भात् 'अतोयं प्रांशुः इति च प्रतिपत्तिः किं नाम मानं स्यात् ?
तथा वृक्षाद्यनभिज्ञो यदा कश्चित्कञ्चित्पृच्छति कीदृशो वृक्षादिरिति ? स तं प्रत्याह- 'शाखादिमवृक्ष एकशृङ्गो गण्डकोऽष्टपादः शरभः चारुसटान्वितः सिंहः' इत्यादि । तद्वाक्या हितसंस्कारः प्रष्टा यदा शाखादिमतोर्थान् प्रतिपद्य 'प्रयं स वृक्षशब्दवाच्यः' इत्यादिरूपतया तत्संज्ञासंज्ञिसम्बन्धं प्रतिपद्यते तदा किं नाम तत्प्रमाणं स्यात् ? उपमानम्; इत्यसम्भाव्यम्; सर्वत्रोक्तप्रकारप्रतिपत्तौ प्रसिद्धार्थ साधर्म्यासम्भवात् । ततः प्रतिनियतप्रमाणव्यवस्थामभ्युपगच्छता प्रतिपादितप्रकारा प्रतीतिः प्रत्यभिज्ञैवेत्यभ्युपगन्तव्यम् ।
होना उपमा प्रमाण है ऐसा भी नैयायिक को स्वीकार करना चाहिए, [ क्योंकि यह भी प्रसिद्ध वैधर्म्य जैसे प्रतिभास वाला है ] और इस तरह स्वीकार करने पर प्रत्यभिज्ञान का प्रत्यक्ष में अंतर्भाव करना प्रयुक्त सिद्ध होता है । तथा अपने निकटवर्ती महल आदि को देखकर जिसको संस्कार उत्पन्न हुआ है उस पुरुष के उस महल के प्रतियोगी पर्वत श्रादि को देखने से " यह इससे दूर है" इस प्रकार की प्रतीति होती है एवं प्रांवला को देखने से उत्पन्न हुआ है संस्कार जिसके उस पुरुष के बेल आदि को देखकर "इससे वह छोटा था" इत्यादि ज्ञान होता है तथा वामन पुरुष को देखकर संस्कारित हुए व्यक्ति के उससे विपरीत ऊँचे पुरुष के देखने से इससे यह ऊँचा है, इत्यादि ज्ञान होता है, ये सब कौन से प्रमाण कहलायेंगे ? तथा कोई पुरुष वृक्षादि को नहीं जानता है वह जब किसी को पूछता है कि वृक्षादि कैसे होते हैं ? तब वह उसको समझाता है कि शाखा आदि से युक्त वृक्ष होता है, एक सींग वाला गेंडा होता है, ग्राठ पैरों वाला अष्टापद होता है, सुन्दर सटायुक्त सिंह होता है, इत्यादि । इन वाक्यों को सुनकर जिसके संस्कार हो चुका है ऐसा वह प्रश्न कर्त्ता जब शाखा युक्त वृक्ष को देखता है, तब यह वृक्ष शब्द का वाच्य पदार्थ है, इत्यादि संज्ञा और संज्ञी का संबंध जान लेता है । इस प्रकार के ज्ञानों को कौन सा प्रमाण माना जाय ? उपमा कहना तो असंभव है क्योंकि सबमें उपर्युक्त प्रसिद्धार्थ साधर्म्य का अभाव है । इसलिये प्रतिनियत प्रमाण की व्यवस्था चाहने वाले परवादी को सादृश्य आदि भेद वाली प्रतीति को प्रत्यभिज्ञान रूप ही स्वीकार करना चाहिये ।
इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान की सिद्धि का प्रकरण समाप्त हुआ ।
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