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________________ २१८ प्रमेयकमलमार्तण्डे "तस्माद्यत्स्मर्यते तत्स्यात्सादृश्येन विशेषितम् । प्रमेयमुपमानस्य सादृश्यं वा तदन्वितम् ।।१।। प्रत्यक्षेणावबुद्ध पि सादृश्ये गवि च स्मृते । विशिष्टस्यान्यतः सिद्ध रुपमानप्रमाणता ॥२॥" [ मी० श्लो० उपमान० श्लो० ३७-३८ ] इति । तदप्यसमीक्षिताभिधानम्; एकत्वसादृश्यप्रतीत्योः सङ्कलना (न) ज्ञानरूपतया प्रत्यभिज्ञानतानतिक्रमात् । स एवायम्' इति हि यथोत्तरपर्यायस्य पूर्वपर्यायणकताप्रतीतिः प्रत्यभिज्ञा, तथा सादृश्यप्रतीतिरपि 'अनेन सदृशः' इत्यविशेषात् । पूर्वोत्तर प्रत्ययवेद्यैकत्वगोचरत्वात्तस्याः प्रत्यभिज्ञानत्वे सादृश्यप्रतीतावपि तत्स्यात् । न हि तत्ताभ्यां न परिच्छिद्यते-- प्रत्यभिज्ञानपना है, वैसे ही सादृश्य प्रतीति वाला ज्ञान भी प्रत्यभिज्ञान ही है। यह सादृश्य पूर्वोत्तर प्रत्ययों से [ स्मरण तथा प्रत्यक्ष ज्ञानों से ] नहीं जाना जाता हो सो भी बात नहीं है । आप मीमांसक के ग्रन्थ में ही कहा है कि इस सादृश्य का वस्तुपना सिद्ध होने पर तथा चक्षु द्वारा संबंधपना सिद्ध होने पर उसका दोनों जगह (गाय और रोझ में) अथवा एकत्र (रोझ में) प्रत्यक्ष होना सिद्ध ही होता है, अतः सादृश्य का प्रत्यक्ष होना रोका नहीं जा सकता, अर्थात् सादृश्य प्रत्यक्ष से ग्रहण होता है ।।१।। यह सादृश्य सामान्य के समान एक-एक पदार्थ में परिसमाप्त होकर रहता है, और प्रतियोगी के नहीं देखने पर भी प्रत्यक्षादि से उपलब्ध होता है ।।२।। इन उपर्युक्त दोनों श्लोकार्थ से सिद्ध होता है कि सादृश्य प्रत्यक्षादि से जाना जाता है। आप जिस प्रकार गाय और रोझ का विशिष्ट सादृश्य पूर्वोत्तर प्रत्ययों से प्रतीति में नहीं पाकर उपमा ज्ञान से प्रतीति में आता है ऐसा मानते हैं उसी प्रकार पूर्वोत्तर पर्यायों से विशिष्ट ऐसा एकत्व प्रत्यभिज्ञान द्वारा प्रतीति में आता है ऐसा भी मानना चाहिये । यदि एकत्व का ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है और सादृश्य का ज्ञान उपमा प्रमाण है ऐसा मानेंगे तो वैलक्षण्य का ज्ञान किस नाम का प्रमाण होगा ? जिस प्रकार गो को देखने से संस्कारित हुए पुरुष को रोझ को देखकर "इसके समान वह है" ऐसी प्रतीति होती है उसी प्रकार भैंस को देखकर इससे विलक्षण वह है ऐसी विलक्षणता की प्रतीति भी होती है। आपके कथनानुसार वह प्रतीति प्रत्यभिज्ञान और उपमान में से किसी रूप तो हो नहीं सकती, क्योंकि यह प्रतीति एकत्व और सादृश्य को विषय करने वाले ज्ञानों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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