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________________ २६६ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रतिपाद्य स्वपुत्रादिना सदृशे पुरुषे 'तादृशोयम्' इत्यपि प्रत्यभिज्ञानमप्रमाणं प्रतिपादयितु युक्तम्; तस्याबाट मानत्वेन प्रमाणत्वात् । स्यान्मतम्-प्रत्यभिज्ञानमनुमानत्वेन प्रमाणमिष्यत एव; तथाहि-पूर्वोत्तरार्थक्षणयोरनर्थान्तरभूतं सादृश्यं तत्प्रत्यक्षाभ्यां प्रतीयत एव । यस्तु तथा प्रतिपद्यमानोपि सादृश्यव्यवहारं न करोति घटविविक्तभूतलप्रतिपत्तावपि घटाभावव्यवहारवत्, स 'प्रागुपलब्धार्थसमानोयं तत्सदृशाकारोपलम्भात्' इत्युभयगतसदृशाकारदर्शनेन तथा व्यवहारं कार्यते, दृश्यानुपलम्भोपदर्शनेन घटाभावव्यवहारवत्; तदप्यसङ्गतम्; 'प्राक्प्रतिपन्नधूमसदृशोयं धूमः' इत्यादिलिङ्गप्रत्यभिज्ञाज्ञानस्य लैङ्गिकत्वे तल्लिङ्गप्रत्यभिज्ञाज्ञानस्यापि लैंगिकत्वमित्यनवस्थाप्रसंगात् । सादृश्य निमित्तक प्रत्यभिज्ञान "वही यह है" इस प्रकार के एकत्व प्रत्यभिज्ञान द्वारा बाध्यमान होने से अप्रमाण है, ऐसा प्रतिपादन करके अपने पुत्र के सदृश जो अन्य पुरुष है उसमें "वैसा है" इस तरह का होने वाला प्रत्यभिज्ञान भी अप्रमाण है ऐसा प्रतिपादन करना युक्त नहीं है, क्योंकि अबाधित होने से यह प्रमाणभूत है । बौद्ध-हम लोग प्रत्यभिज्ञान को अनुमान रूप से प्रमाण मानते ही हैं आगे इसी को स्पष्ट करते हैं पूर्व और उत्तर अर्थ क्षणों में जो अभिन्न रूप सादृश्य है वह पूर्वोत्तर प्रत्यक्षों द्वारा प्रतीत होता ही है । किन्तु जो पुरुष उस प्रकार प्रतिपादन करते हुए भी सादृश्य का व्यवहार नहीं करता जैसे घट रहित भूतल को जान लेने पर भी घटाभाव के व्यवहार को सांख्यादि परवादी नहीं करते हैं, ऐसे पुरुष को “पहले देखे हुए पदार्थ के समान यह है' क्योंकि उसके समान आकार की उपलब्धि है, इस प्रकार उभयगत सदृशाकार को दिखलाकर सदृशता का व्यवहार कराया जाता है “जैसे कि उन्हीं सांख्यादि को दृश्यानुपलंभ दिखलाकर घट के प्रभाव का व्यवहार कराया जाता है । सारांश यह निकला कि प्रत्यभिज्ञान अनुमान में अंतर्हित है । जैन-यह कथन असंगत है "पहले जाने हुए धूम के समान यह धूम है" इत्यादि रूप से धूम हेतु को विषय करने वाला जो प्रत्यभिज्ञान है उसको अनुमान रूप स्वीकार करेंगे तो उसके हेतु को जानने वाले प्रत्यभिज्ञान को भी अनुमानपना प्राप्त होगा और इस तरह अनवस्था आ जायेगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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