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________________ प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यविचारः प्रथोच्यते - ' पूर्वमुत्तरं वा दर्शनमेकत्वेऽप्रवृत्त कथं स्मरणसहायमपि प्रत्यभिज्ञानमेकत्वे जनयेत् ? न खलु परिमलस्मरणसहायमपि चक्षुर्गन्धे ज्ञानमुत्पादयति' इति तदप्युक्तिमात्रम्; तथा च तज्जनकत्वस्यात्र प्रमाणप्रतिपन्नत्वात् । न च प्रमाणप्रतिपन्नं वस्तुस्वरूपं व्यलीकविचारसहस्र ेणाप्यन्यथाकत्तुं शक्यं सहकारिणां चाचिन्त्यशक्तित्वात् । कथमन्यथाऽसर्वज्ञज्ञानमभ्यास विशेष सहाय सर्वज्ञज्ञानं जनयेत् ? एकत्वविषयत्वं च दर्शनस्यापि, अन्यथा निर्विषयकत्वमेवास्य स्यादेकान्ता - नित्यत्वस्य कदाचनाप्यप्रतीतेः । केवलं तेनैकत्वं प्रतिनियतवर्त्त मानपर्यायाधारतयार्थस्य प्रतीयते, स्मरणसहाय प्रत्यक्षजनितप्रत्यभिज्ञानेन तु स्मर्यमाणानुभूयमानपर्यायाधारतयेति विशेषः । २६१ न च लूनपुनर्जातनखकेशादिवत्सर्वत्र निर्विषया प्रत्यभिज्ञा; क्षरणक्षयैकान्तस्यानुपलम्भात् । तदुपलम्भे हि सा निर्विषया स्यात् एकचन्द्रोपलम्भे द्विचन्द्रप्रतीतिवत् । लूनपुनर्जातनखकेशादी च 'स प्रत्यभिज्ञान में भी उपर्युक्त दोष मत होवे, क्योंकि इसमें भी एकाधिकरत्व की प्रत्यक्ष से प्रतीति आती है । बौद्ध - पूर्व प्रत्यक्ष अथवा उत्तर प्रत्यक्ष एकत्व विषय में प्रवृत्त नहीं होता अतः स्मरण की सहायता लेकर भी वह प्रत्यभिज्ञान को किस तरह उत्पन्न कर सकेगा, सुगन्धि की सहायता मिलने पर भी क्या चक्षु गंध विषय में ज्ञान को उत्पन्न कर सकती है ? जैन - यह कथन प्रयुक्त है प्रत्यक्ष का एकत्व विषय में ज्ञान उत्पन्न करना प्रमाण से प्रसिद्ध है । प्रमाण से प्रतिभासित हुए वस्तु स्वरूप को झूठे हजारों विचारों द्वारा भी अन्यथा नहीं कर सकते, क्योंकि सहकारी कारणों की ग्रचिन्त्य शक्ति हुआ करती है, यदि ऐसा नहीं होता तो सर्वज्ञ का ज्ञान अभ्यास की सहायता लेकर सर्वज्ञ ज्ञान को कैसे उत्पन्न कर सकता था ? दूसरी बात यह है कि प्रत्यभिज्ञान का ही विषय एकत्व होवे सो बात भी नहीं, प्रत्यक्ष भी एकत्व विषय का ग्राहक हैं अन्यथा यह ज्ञान निर्विषयक होवेगा, क्योंकि सर्वथा अनित्य की कभी भी प्रतीति नहीं होती है । प्रत्यक्ष और प्रत्यभिज्ञान में अंतर केवल यह है कि प्रत्यक्ष ज्ञान प्रतिनियत वर्तमान पर्याय के आधारभूत द्रव्य के एकत्व को ग्रहण करता है और प्रत्यभिज्ञान स्मरण तथा प्रत्यक्ष की सहायता से उत्पन्न होकर स्मर्यमान पर्याय और अनुभूयमान पर्याय इन दोनों के आधारभूत द्रव्य के एकत्व को ग्रहण करता है । जिस प्रकार काटकर पुनः उत्पन्न हुए नख केश आदि में होने वाला एकत्व का प्रतिभास निर्विषय है उसी प्रकार प्रत्यभि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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