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________________ प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्य विचारः २८३ अथेदानीं प्रत्यभिज्ञानस्य कारणस्वरूपप्ररूपणार्थ दर्शनेत्याद्याह दर्शन-स्मरणकारणकं सङ्कलनं प्रत्यभिज्ञानम् । तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि ।।५।। दर्शनस्मरणे कारणं यस्य तत्तथोक्तम् । सङ्कलनं विवक्षितधर्मयुक्तत्वेन प्रत्यवमर्शनं प्रत्यभिज्ञानम् । ननु प्रत्यभिज्ञायाः प्रत्यक्षप्रमाणस्वरूपत्वात् परोक्षरूपतयात्राभिधानमयुक्तम्; तथाहि-प्रत्यक्षं प्रत्यभिज्ञा अक्षान्वयव्यतिरेकानुविधानात् तदन्यप्रत्यक्षवत् । न च स्मरणपूर्वकत्वात्तस्याः प्रत्यक्षत्वाभावः, सत्सम्प्रयोगजत्वेन स्मरणपश्चाद्भावित्वेप्यस्याः प्रत्यक्षत्वाविरोधात् । उक्त च--- प्रत्यभिज्ञान प्रामाण्य का विचार अब श्री माणिक्यनंदी आचार्य प्रत्यभिज्ञान का कारण तथा स्वरूप बतलाते हैं । दर्शन स्मरण कारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानं, तदेवेदं, तत् सदृशं तत् विलक्षणं तत् प्रतियोगीत्यादि ।।५।। सूत्रार्थ-प्रत्यक्ष दर्शन और स्मृति के द्वारा जो जोडरूप ज्ञान होता है उसको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। उसके "वही यह है" "यह उसके समान है" यह "उससे विलक्षण है' यह उसका प्रतियोगी है इत्यादि अनेक भेद हैं । जिस ज्ञान में दर्शन और स्मरण निमित्त पड़ता है वह “दर्शन स्मरण कारणक" कहलाता है । संकलन का अर्थ विवक्षित धर्म से युक्त होकर पुनः ग्रहण होना है । मीमांसक-यह प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण रूप है अतः यहां परोक्ष रूप से उसका कथन करना अयुक्त है, अनुमान सिद्ध बात है कि प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण स्वरूप है क्योंकि इसका इन्द्रियों के साथ अन्वय व्यतिरेक पाया जाता है उससे अन्य जो प्रत्यक्ष है उसमें पाया जाता है। प्रत्यभिज्ञान स्मरण पूर्वक होता है अतः यहां परोक्षरूप से उसका कथन करना अयुक्त है, अनुमान सिद्ध बात है कि प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण स्वरूप है क्योंकि इसका इन्द्रियों के साथ अन्वय व्यतिरेक पाया जाता है जैसे उससे अन्य प्रत्यक्ष प्रमाण में इन्द्रियों के साथ अन्वय व्यतिरेक देखा जाता है प्रत्यभिज्ञान स्मरण पूर्वक होता है अतः परोक्ष है ऐसा भी नहीं कहना क्योंकि यह ज्ञान सत् संप्रयोगज है अतः स्मरण के पश्चात् होने पर भी उसमें प्रत्यक्षता मानने में विरोध नहीं आता। [विद्यमान अर्थ का इन्द्रिय के साथ सन्निकर्ष होना सत् संप्रयोग कहलाता है उससे जो हो उसे सत् संप्रयोगज कहते हैं ] कहा भी है जो ज्ञान स्मरण के Jain Education International For Private & Personal Use Only 'www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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