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प्रमेयकमल मार्त्तण्डे
अवश्य है किंतु जहां नरक हेतु का प्रकर्ष है वहां मोक्ष कारण का प्रकर्ष हो और नहीं भी हो ऐसा है ।
आपका आगम वाक्य भी स्त्री मुक्ति का प्रतिपादन न करके पुरुषवेदी के मुक्ति का ही प्रतिपादन करता है, अर्थात् पुरुषवेद का अनुभव करते हुए और अन्य वेदों का अनुभव करते हुए जीव श्रेणी चढ़कर मोक्ष जाते हैं ऐसा जो वाक्य है उसका अर्थ यह है कि चाहे जिस वेद का उदय हो उस वेद के उदय से सहित पुरुष ही श्रेणी प्रारोहण कर सिद्ध होते हैं । तथा ग्रापकी स्त्री मुक्ति के लिये दी गई युक्तियां असत्य हैं, जैसे पीछी आदि जीव रक्षा के लिये सहायक है वैसे वस्त्र नहीं हैं उल्टे उसमें अनेक जीवों का घात होता है । वस्त्र को धोना, सुखाना, फटकारना, समेटना इत्यादि क्रियाओं में हिंसा होती है, याचना वृत्ति भी होगी । जब प्रति उच्च श्र ेणी का परम होता है तब पीछी आदि का भी त्याग होता है तो वस्त्र की बात ही क्या ? यदि कहे कि संयमी को वस्त्र धारण में राग नहीं होता सो असंभव है, बुद्धिपूर्वक हाथ से प्रोढना आदि करते हुए भी उस पर राग नहीं है ऐसा माने तो स्त्रियों का आलिंगन आदि करते हुए भी राग नहीं है ऐसा भी मानना होगा, इस तरह तो आप और वैशेषिकादि में कुछ भी अंतर नहीं रहेगा ( क्योंकि वे भी स्त्री वस्त्रादि से युक्त होकर मोक्ष होना मानते हैं)
तथा जब सम्यग्दर्शन होने के अनन्तर यह जीव स्त्री पर्याय में जन्म नहीं लेता है तो मोक्ष कैसे जायगा ? अनादि मिथ्यादृष्टि के कर्मोपशम होने पर स्त्री अवस्था में ही कर्म काट मोक्ष जाने की बात कहना हास्यास्पद है क्योंकि यदि अनादि मिथ्यादृष्टि के कर्म का उपशम हुआ है तो उसका स्त्री पर्याय में जन्म ही नहीं होगा, स्त्रियों के उत्कृष्ट ध्यान भी नहीं होता है, संयम भी अच्छी तरह नहीं पलता वह स्वभाव से ही भीरु रहती है इत्यादि अनेक युक्तियों से स्त्री मुक्ति का निरसन हो जाता है ।
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