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________________ स्त्रीमुक्तिविचारः २६६ शुभकर्मणः स्त्रीवेदेनोत्पत्त रसम्भवात्, तस्याप्यशुभकर्मत्वेन निर्जीर्णत्वात् । कथं पुनः स्त्रीवेदस्याशुभकर्मत्वमिति चेत्, सम्यग्दर्शनोपेतस्य तत्त्वेनोत्पत्ते रयोगात् । ततो नास्ति स्त्रीणां मोक्षः पुरुषादन्यत्वात् नपुंसकवत् । अन्यथाऽस्याप्यसौ स्यात् । न चैतद्वाच्यम्-नास्ति पुसो मोक्षः स्त्रीतोन्यत्वात् नपुंसकवत्; उभयवादिसम्मतागमेन बाधितत्वात्, भवदागमस्य चास्मान्प्रति अप्रमाणत्वात् । तथा स्त्रीणां मोक्षो नास्ति उत्कृष्टध्यानफलत्वात् सप्तमपृथ्वीगमनवत् । अतोपि न तासां मुक्तिसिद्धिः । ततोऽनन्तचतुष्टयस्वरूपलाभलक्षणो मोक्षः पुरुषस्यैवेति प्रेक्षादक्षैः प्रतिपत्तव्यम् । दिगम्बर-यह कथन अयुक्त है, जिसके पूर्व में अशुभ का नाश हुआ है वह जीव स्त्रीपर्याय में उत्पन्न ही नहीं होता है, क्योंकि स्त्रीवेद एक अशुभकर्म है वह भी अशुभ कर्म के साथ निर्जीर्ण हो जाता है । स्त्रीवेद को अशुभकर्म क्यों कहते हैं ? ऐसा प्रश्न होवे तो उसका उत्तर यह है कि सम्यग्दृष्टि स्त्रीवेद को लेकर उत्पन्न नहीं होता है इसी से निश्चित होता है कि स्त्रीवेद अशुभ है । इस प्रकार स्त्रियों के मोक्ष नहीं होता है क्योंकि वह पुरुषवेद से अन्यवेद युक्त है । जैसे नपुंसक । इस अनुमान द्वारा स्त्रीमुक्ति का निषेध हो जाता है। यदि स्त्रियों को मोक्ष होना मानते हैं तो नपुंसक के भी मानना पड़ेगा। कोई कहे कि पुरुष के मोक्ष नहीं होता, क्योंकि वह स्त्री से अन्यरूप है, जैसे नपुसक के नहीं होता है ? सो यह कथन सर्वथा विपरीत है यह अनुमान उभयवादी में (श्वेतांबर और दिगम्बरों में) प्रसिद्ध आगम द्वारा बाधित है, श्वेताम्बर का जो आगम स्त्रीमुक्ति का प्रतिपादन करता है वह हमारे लिये अप्रमाणभूत है अतः उससे स्त्रीमुक्ति की सिद्धि नहीं होती है । अनुमान प्रमाण से पुनः सिद्ध करते हैं कि स्त्रियों के मोक्ष नहीं होता है, क्योंकि वह उत्कृष्ट ध्यान का फल है स्त्रियों के उत्कृष्ट ध्यान नहीं होता है, जैसे सातवें नरक में गमन नहीं होता है । इस अनुमान से स्त्रीमुक्ति का निषेध हो जाता है। इसलिये बुद्धिमान मनुष्यों को अनंत चतुष्टयत्वरूप का लाभ होता है लक्षण जिसका ऐसा मोक्ष पुरुषों को ही होता है अन्य को नहीं, ऐसा मानना चाहिये । इस प्रकार स्त्रीमुक्ति का निषेध सिद्ध हुआ। साथ ही प्रत्यक्ष परिच्छेद नामा दूसरा परिच्छेद भी समाप्त होता है । अंत में उपसंहाररूप श्लोक कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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