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प्रमेयकमलमार्तण्डे
उत्पन्न होता है उस आत्माको नित्य मानना होगा तभी उसके पहलेका अशुद्ध ज्ञान नष्ट होकर विशुद्ध ज्ञान होना रूप मोक्ष सिद्ध हो सकेगा। जैनके मोक्षका समर्थन तो आगे कर ही रहे हैं अतः उसका खण्डन करना अशक्य है।
ब्रह्माद्वैतवादके मोक्षका निरसन तो ठीक ही है क्योंकि जब ब्रह्म स्वरूप एक ही तत्त्व सर्वत्र व्याप्त है तब उसमें अवस्थाते अवस्थान्तर होना इत्यादि रूप मोक्ष सिद्ध नहीं होता।
सांख्यके द्वारा माना गया चैतन्यमें अवस्थान होना रूप मोक्षका खण्डन उचित है क्योंकि वह मोक्षका लक्षण असत्य है, सांख्य भी वैशेषिकके समान अकेले तत्त्वज्ञानसे मोक्ष होना कहते हैं उसमें वही प्रश्न है कि तत्त्वज्ञान होनेके बाद पूर्व संचित कर्मका क्रमसे भोग करके मोक्ष होता है या अक्रम से भोग करके ? क्रमसे होना तो शक्य नहीं क्योंकि क्रमसे भोग करने में नये नये कर्म बन्ध होते जायेंगे इत्यादि पहलेके दोष आते हैं, और अक्रमसे कहो तो उसमें तप आदि कारण अवश्य मानने होंगे। तथा सांख्य भी मोक्षमें ज्ञानका प्रभाव मानते हैं अतः उनके मोक्षका स्वरूप प्रसिद्ध है।
_ जैन के मोक्ष स्वरूपका खण्डन होना असम्भव है, क्योंकि वह निर्दोष है। वैशेषिकने कहा था कि अनेकान्त की भावनासे मोक्ष होता है तो उस अनेकांत को मोक्ष अवस्थामें भी मानना पड़ेगा ? सो हमें इष्ट ही है। अत: अनेकांत का जो तत्त्वज्ञान है उस तत्त्वज्ञानके द्वारा जिसको सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र आदिकी सहायता है ऐसे ज्ञानके द्वारा आत्माका अवस्थान्तर होता है वही मोक्ष है, मोक्षमें अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंत वीर्य, इस प्रकार अनंत चतुष्टय स्वरूप आत्मा रहता है, वहां वैशेषिक सांख्यादिके समान ज्ञानका प्रभाव नहीं है, तथा आत्मा से उत्पन्न होने वाला सुख या आनन्द भी रहता है अन्यथा ज्ञान और सुख रहित ऐसे वैशेषिकादि की मुक्तिके लिये कौन पूरुष प्रयत्न करेगा? अर्थात नहीं करेगा। अनंत सुखादि गुण उनके प्रतिबंधक कर्मोंके नष्ट होनेसे प्राप्त होते हैं, कर्मोंका अस्तित्व तथा उनका नाश ये दोनों मुख्य प्रत्यक्षका लक्षण करते समय सिद्ध हो चुका है, इस प्रकार अनंत चतुष्टय स्वरूप मोक्ष है यह मोक्षका लक्षण निर्दोष सिद्ध होता है।
॥ मोक्षस्वरूपविचार का सारांश समाप्त ।
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