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________________ मोक्षस्वरूप विचारः पादितम् । तथा चात्मस्वभावास्ते चेतनत्वादनुभववत् । सुखमप्यात्मस्वभाव एव मोक्षेऽभिव्यज्यमानत्वाद् ज्ञानवत् । अनात्मस्वभावत्वे तत्र तदभिव्यक्तिर्नस्याद्दुःखवत् । तथा सुखात्मको मोक्षश्चेतनात्मकत्वे सत्यखिल दुःखविवेकात्मकत्वात् संहृतसकल विकल्पध्यानावस्थावत् । तथानन्तं तत् आत्मस्वभावत्वे सत्यपेत प्रतिबन्धत्वात् ज्ञानवदेव । श्रपेतप्रतिबन्धत्वं तु मोहनीयादेः प्रतिबन्धकस्य कर्मणोऽपायात्प्रसिद्धमेव । इति सिद्धमनन्तज्ञाना दिचैतन्य विशेषेऽवस्थानं सो मोक्ष इति । इसप्रकार ज्ञानादि धर्मों में चेतनत्व सिद्ध होता है अतः वे आत्माके स्वभाव हैं क्योंकि चैतन्यरूप हैं, जैसे अनुभव चेतनरूप है । ज्ञानके समान सुख भी आत्माका ही स्वभाव है, क्योंकि ज्ञानके समान वह भी मोक्षमें अभिव्यक्त होता है, यदि सुख आत्माका स्वभाव नहीं होता तो मोक्षमें उसकी अभिव्यक्ति नहीं होती, जैसे दुःख आत्माका स्वभाव नहीं होने के कारण उसकी मोक्षमें अभिव्यक्ति नहीं होती । २५३ मोक्ष सुखात्मक होता है, क्योंकि चेतनात्मक होकर सम्पूर्ण दुःखोंसे विविक्तरूप हो चुका है, जिसप्रकार निरुद्ध होगये हैं सकल विकल्पजाल जिसमें ऐसी ध्यान की अवस्था सुखात्मक हुआ करती है । वह मोक्षका सुख अंत रहित अनन्त है, क्योंकि आत्माका स्वभाव होकर प्रतिबन्धसे रहित है, जैसे ज्ञान आत्माका स्वभाव है पुनश्च प्रतिबन्ध रहित है अतः अनन्त होता है [ कभी भी नाश नहीं होता ] ज्ञान सुख प्रादि आत्मीक गुणों का प्रतिबन्ध रहितपना इसलिये हुआ है कि मोहनीय ज्ञानावरणीय इत्यादि प्रतिबन्धक स्वरूप कर्मोंका सर्वथा प्रभाव [ नाश ] हो गया है । इस प्रकार जैन द्वारा प्रतिपादित पूर्वोक्त मोक्षका लक्षण प्रबाधित सिद्ध होता है कि आत्मा का अनन्त ज्ञान दर्शन सुख वीर्य रूप चैतन्यविशेषमें सदा शाश्वत रूपेन अवस्थान हो जाना मोक्ष है । Jain Education International ॥ इति मोक्षस्वरूपविचार समाप्त ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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