SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षस्वरूपविचारः २३३ प्रवृत्त रनुपपत्ते: । न चान्योन्यविलक्षणाऽपरापरचित्तक्षणानामनुयायिजीवाभावो विरोधात्; इत्यभिधातव्यम्; स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण तत्रानुयायिरूपतया तस्य प्रतीतेः । प्रतीयमानस्य च कथं विरोधो नाम अनुपलम्भसाध्यत्वात्तस्य ? तद्वयापारे चासति आत्मनि प्रत्यभिज्ञानप्रत्ययस्य प्रादुर्भावो न स्यात् । अथात्मन्यप्यारोपितैकत्वविषयत्वादस्य प्रादुर्भावः; न; अस्यारोपितैकत्वविषयत्वे स्वात्मन्यनुमानात्क्षणिकत्वं निश्चिन्वतो निवृत्तिप्रसङ्गात्, निश्चयारोपमनसोविरोधात् । निवर्तत एवेति चेत्; तहि सहजस्याभिसंस्कारिकस्य च अध्यारोपको दूर करनेके लिये प्रयत्न करते हैं इत्यादि कथन नष्ट होता है । इसलिये ज्ञान संतानको सान्वय [द्रव्याधारभूत] स्वीकार करना ही युक्ति संगत है, सकल विज्ञानके क्षणभूत संतानके होनेपर भी जीवके अभावमें बंध मोक्ष एवं उनके लिये प्रवृत्ति दोनों ही घटित नहीं होते। बौद्ध-परस्परमें अत्यन्त विलक्षण ऐसे अन्य अन्य ज्ञान क्षणोंका अन्वय हो नहीं सकता अतः इनमें रहने वाले अनुयायी जीवका अभाव ही है यदि उसको माने तो विरोध होगा ? जैन-ऐसा कहना असत् है मैं पहले दुःखी था अब सुखी हो गया इत्यादि स्वयंके प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञानक्षणों का अन्वय एवं अनुयायीकी प्रतीति हो रही है, प्रतीयमान वस्तुका विरोध किसप्रकार हो सकता ? विरोध तो अनुपलंभ साध्य है। इसप्रकार संतान एकत्वकी सिद्धि नहीं होनेसे मुक्तिके लिये प्रयत्न करना सिद्ध नहीं होता तथा प्रात्माका अस्तित्व भी स्वीकृत नहीं किया जाता अतः प्रत्यभिज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्षणिक पात्मामें कल्पित किया गया जो एकत्व है उसको विषय करनेसे प्रत्यभिज्ञानका प्रादुर्भाव होता है ऐसा कहना भी गलत है, प्रत्यभिज्ञानका विषय कल्पित एकत्व माने तो अपने में अनुमानसे क्षणिकपनेका निश्चय करने वाले पुरुषके वह प्रत्यभिज्ञान निवृत्त हो जायगा [नष्ट होवेगा] क्योंकि निश्चित ज्ञान और कल्पित विषयक ज्ञानका एकत्र रहनेमें विरोध है । बौद्ध-प्रात्माके क्षणिकपनेका निश्चय हो जानेपर एकत्व विषयक प्रत्यभिज्ञान निवृत्त होता ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy